22 सालों में कहां पहुंचा भगवान बिरसा मुंडा का झारखंड?

22 सालों में कहां पहुंचा भगवान बिरसा मुंडा का झारखंड?

सूर्य सिंह बेसरा, पूर्व विधायक और झारखंड आंदोलनकारी

22 वर्षों में झारखंड की तस्वीर और झारखंडी जनता की तकदीर नहीं बदली। भगवान बिरसा मुंडा को एक आदर्श महापुरुष मानकर 15 नवंबर को उनकी जयंती के अवसर पर सन 2000 में भारत के 28वें राज्य के रूप में झारखंड की स्थापना हुई। झारखंड राज अजूबा अवस्था में प्रवेश कर गया है। परंतु, यह विडंबना ही कहा जाए कि 22 वर्षों के अंतराल में झारखंड में 11 बार सत्ता का परिवर्तन हुआ। सबसे पहले 2000 में भाजपा की सरकार बनी जिसमें पहला मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बने उसके बाद अर्जुन मुंडा ने तीन बार मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभाली। उसी प्रकार झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में कभी भाजपा गठबंधन तो कभी कांग्रेस गठबंधन के साथ दिशुम गुरु शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बने।

सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह कि मधु कोड़ा निर्दलीय विधायक रहते हुए भी झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस आई के सहयोग से 2 वर्षों तक सत्ता में काबिज रहे। उसी प्रकार झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन से हेमंत सोरेन दो बार मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालते रहे। यह उल्लेखित करना उचित है कि 2014 से 2019 तक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास ने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। सचमुच यह विडंबना है कि 22 वर्षों में 11 बार सरकार बनी। 5 बार विधानसभा का चुनाव भी हुआ। इसके अलावा राज्य में तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लगा। इसके बावजूद झारखंड की तस्वीर नहीं बदली और ना ही झारखंडियों की तकदीर बदली। परिवर्तन के नाम पर सिर्फ सत्ता का परिवर्तन हुआ है, लेकिन व्यवस्था का कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ। अगर 22 वर्षों के कार्यकाल का राजनीतिक विश्लेषण किया जाए तो हताशा और निराशा ही हाथ लगेगी, क्योंकि आजतक ना भाषा नीति बनी और ना पेसा कानून लागू हुआ, ना जल जंगल जमीन सुरक्षा हेतु अधिनियम लागू हुआ।

बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में 2002 में झारखंड उच्च न्यायालय ने स्थानीय नीति को गैर संवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था। उसके बाद 2016 में रघुवर दास के शासनकाल में भाजपा ने 1985 को आधार मानते हुए स्थानीय नीति निर्धारित किया। वह भी आधार में लटक गई। जब 2019 में झारखंड मुक्ति मोर्चा व कांग्रेस सरकार आयी तो चुनावी वादे को आज तक पूर्ण रूप से लागू नहीं किया गया। अब जब झारखंड में स्थानीय नीति निर्धारित करने की आंदोलन शुरू हुआ तो सरकार दबाव में आ गई और हड़बड़ी में फिर गड़बड़ी कर डाली। यानी 1932 के आधार पर साथ ही साथ भारतीय नागरिकता यानी संविधान के अनुच्छेद 5 अधिवास डोमिसाइल को जोड़कर विगत 11 नवंबर को विधानसभा की विशेष सत्र बुलाकर विधेयक पारित किया गया। इसमें 1932 की खतियान के पश्चात ना तो 1964 और ना ही 1972 को जोड़ा गया तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की मिली जुली सरकार ने झारखंड के आदिवासी मूलवासियों के साथ फिर से धोखाधड़ी की है। यह सर्वविदित है कि झारखंड की स्थानीय भाषा संताली, मुंडारी, हो कुरूख है। नागपुरी, खोरठा, कुड़माली तथा पंचपड़गानिया भाषाओं को प्राथमिक स्तर से लेकर उच्चतर स्तर तक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित नहीं किया जाना, वर्तमान सरकार में भाषा नीति का घोर अभाव को दरसाता है। पेसा कानून 1996 में बना है। यह केंद्रीय कानून संविधान की पांचवी अनुसूची क्षेत्र में लागू होना अनिवार्य बताया गया है बावजूद आज तक हमारे गांव में हमारा राज केवल नारा बनकर रह गया है। आज तक इसे अमलीजामा नहीं पहनाया गया है। करीब 50, 000 झारखंड आंदोलनकारियों का आवेदन लंबित पड़ा है। शहीदों को ना तो सम्मान मिला है और ना ही आंदोलनकारियों को पहचान दी गई।

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Edited By: Samridh Jharkhand

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