क्या है गुवा गोलीकांड, जिसको लेकर पूर्व सीएम चंपाई सोरेन ने कांग्रेस पर साधा था निशाना
अस्पताल से बाहर खींच कर आन्दोलनकारियों के सीने में गोली
तब देश में कांग्रेस की ही सरकार थी, गोवा गोलीकांड के सहारे कांग्रेस को आदिवासी समाज का सबसे बड़ा दुश्मन बताने के पीछे यही तर्क और आदिवासी समाज का यही पुराना दर्द है. लेकिन फिर से वही सवाल यदि चंपाई सोरेन को कांग्रेस का चेहरा इतना ही नागवार गुजरता है, तो फिर पांच महीनों तक कांग्रेसी विधायकों के कंधें की सवारी कर सत्ता का रसास्वादन क्यों किया? और अब जब सत्ता हाथ से निकल गयी तब गुवा गोलीकांड की याद क्यों आयी?
रांची: कांग्रेसी विधायकों के कंधों पर सवार होकर पांच महीने का सत्ता सूख भोगने के बाद, सीने में अपमान का दर्द लिए भगवा अवतरण में आते ही पूर्व सीएम चंपाई ने कांग्रेस को आदिवासियों का सबसे बड़ा दुश्मन करार देते हुए जिस गुवा गोलीकांड की को याद किया था, कल यानि 8 सितम्बर को उसकी 44वीं बरखी थी. इस अवसर सीएम हेमंत के साथ ही कांग्रेसी विधायक और कांग्रेस कोटे से सरकार में शामिल मंत्रियों ने भी उस दुखद पल का याद किया. सेल फूटबॉल मैदान में आयोजित जनसभा में सीएम हेमंत ने उस दुखद घटना को याद करते हुए कहा कि “कोल्हान के लिए आज का दिन ऐसा दिन है, जिसे ना कोई कभी भूल पाया है, ना आने वाली पीढ़ी भी कभी भूल पायेगी। हमारे वीर पुरुखों के आदर्शों को हम लोगों ने अपने कंधों पर रखा है और उनके आदर्शों पर हम झारखण्ड को दिशा देने के लिए लगातार प्रयासरत है। ना जेल से डरा है झारखण्ड, ना फांसी से डरा है झारखण्ड और ना गोली से डरा है झारखण्ड। यही तो हमारा इतिहास है। जितना खून जमीन पर गिरेगा, उतना वीर सपूत जन्म लेगा।“
कोल्हान के लिए आज का दिन ऐसा दिन है, जिसे ना कोई कभी भूल पाया है, ना आने वाली पीढ़ी भी कभी भूल पायेगी। हमारे वीर पुरुखों के आदर्शों को हम लोगों ने अपने कंधों पर रखा है और उनके आदर्शों पर हम झारखण्ड को दिशा देने के लिए लगातार प्रयासरत है।
— Hemant Soren (@HemantSorenJMM) September 8, 2024
ना जेल से डरा है झारखण्ड, ना फांसी से डरा… pic.twitter.com/gxUwCUBqua
आर्थिक समृद्धि के सपने से आदिवासी समाज में विस्थापन का दंश
दरअसल गुवा पश्चिमी सिहंभूम जिले का एक स्थान है. देश की आजादी के बाद इस इलाके में खनन की गतिविधियां और भी तेज हुई. देश की आर्थिक समृद्धि के लिए खनन को जरुरी शर्त बताया जाता था, लेकिन विकास के इस दौड़ में आदिवासी समाज के हाथ से उनके पुरखों की जमीन चली गयी, आर्थिक समृद्धि के लिए विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा था. एक तरफ देश की आर्थिक समृद्धि का सपना और दूसरी तरफ आदिवासी समाज के अंदर विस्थापन का दर्द. सबसे पीड़ादायक स्थिति थी कि खनन के इस कारोबार में आदिवासी समाज की भागीदारी शुन्य थी. उनकी ही जमीन पर संचालित होने वाले खदान में उन्हे काम नहीं मिल रहा था, खनन के लिए मजदूर बाहर से ही मंगाये जा रहे थें. इस प्रकार जमीन गयी, विस्थापन का दर्द मिला, लेकिन खनन से निकले रोजगार में हिस्सेदारी भी नहीं मिली. इसी बात को लेकर बेचैनी थी. झारखंड की सियासत में स्थानीयता का जो उबाल आज देखने को मिल रहा है, यह आज का दर्द नहीं है, दर्द काफी पुराना है. यह दशकों की पीड़ा है. दशक दर दशक गुजरता गया, देश में समृद्धि भी आयी, लेकिन आदिवासी समाज का दर्द का उपचार आज तक नहीं खोजा गया.
स्थानीय युवाओं के लिए काम की मांग पर जेल
बताया जाता है कि खनन के विरोध में गोलबंद होते आदिवासी समाज के सैंकड़ों युवकों को प्रशासन के द्वारा जेल में बंद कर दिया गया था. बहादुर उरांव की ओर प्रकाशित "बलिदान" वार्षिक स्मारिका 2011 इसकी संख्या 108 बतायी गयी है. दावा किया जाता है कि इसी गिरफ्तारी के विरोध में 8 सितम्बर 1980 को गुवा बाजार में जनसभा का आयोजन किया गया था. हजारों की भीड़ थी, अपनी परंपरा के अनुरुप आदिवासी समाज तीर धनुष के साथ सभा स्थल की ओर बढ़ रहा था.
शांति पूर्ण प्रर्दशनकारियों पर गोलियों की बौछार
गुवा बाजार में बहादुर उरांव, भूवनेश्वर महतो और मछुवा गगराई के नेतृत्व में शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जा रहा था. इस बीच पुलिस आती है और पांच मिनट में सभा खत्म करने का आदेश जारी होता है. दूसरी ओर प्रर्दशनकारियों की ओर से मांग पत्र को जमा करने और शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए एक घंटे की मांग की जाती है. लेकिन पुलिस की ओर से ताकत के बल पर आन्दोलनकारियो को हटाने का फैसला किया जाता है, शांतिपूर्ण प्रर्दशन कर रहे हजारों की भीड़ पर एक साथ लाठी चार्ज की शुरुआत कर दी जाती है. लाठीचार्ज के साथ ही भीड़ अनियंत्रित हो गई. लाठीचार्ज के बावजूद भी आदिवासी समाज ने मैदान खाली करने से इंकार कर दिया और फिर पुलिस की ओर से गोलीबारी की शुरुआत हो गयी. तीन आन्दोलनकारियों की मौके पर ही मौत हो गयी. अपने साथियों की मौत के बाद आन्दोलनकारियों ने भी पुलिस के उपर तीर धनुष से हमला बोल दिया और जिसमें चार बीएमपी जवानों की मौत हुई.
अस्पताल से बाहर खींच कर आदिवासियों के सीने में गोली
जैसे ही यह खबर मुख्यालय पहुंची, बड़ी संख्या में पुलिस फोर्स को घटना स्थल के लिए रवाना किया गया, लेकिन इस नाजूक मौके पर स्थिति को नियंत्रित करने के बजाय, घायल आन्दोनकारियों को अस्पताल से बाहर निकाल कर लाइन में खड़ा कर गोलियों से भूनने का रास्ता चुना गया. एक ओर पुलिस के पास बंदुक की ताकत थी तो दूसरी ओर आन्दोलनकारियो के हाथ में पंरपरागत तीर धनुष. बेहद डरावना दृष्य था, चारों ओर से सिर्फ चित्कार की आवाज आ रही थी. एक तरफ आदिवासियों की लाश थी तो दूसरी ओर बीएमपी जवानों का शव. स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार की मांग करते हुए 1. जीतु सुरीन 2. बगी देवगम 3. चुरी हांसदा 4. चंद्रो लागुरी 5. गांडा होनहागा 6. रामो लागुरी 7. जुरा पुर्ती 8. चेतन चम्पिया 9. रेगों सुरीन 10. ईश्वर सरदार को अपनी जिंदगी गंवानी पड़ी, अपनी ही जमीन पर संचालित खदानों में नौकरी की मांग के बदले में जिंदगी गंवानी पड़ी. नौकरी तो मिली नहीं, लेकिन कई परिवारों को हंसता खेलता घर जरुर उजड़ गया. तब देश में कांग्रेस की ही सरकार थी, गोवा गोलीकांड के सहारे कांग्रेस को आदिवासी समाज का सबसे बड़ा दुश्मन बताने के पीछे यही तर्क और आदिवासी समाज का यही पुराना दर्द है. लेकिन फिर से वही सवाल यदि चंपाई सोरेन को कांग्रेस का यह चेहरा इतना ही नागवार गुजरता है, तो फिर पांच महीनों तक इसी कांग्रेसी विधायकों कंधों की सवारी कर सत्ता का रसास्वादन क्यों किया और अब जब सत्ता हाथ से निकल गयी तब ही गुवा गोलीकांड की याद क्यों आयी?