हुसैनाबाद में भाजपा की गुटबाजी चरम पर, अपने ही करते रहे हैं दगाबाजी
पार्टी के भीतर गुटबाजी और आंतरिक कलह ने चुनावी नतीजों पर डाला गंभीर प्रभाव
1952 से लेकर 2019 तक के विधानसभा चुनावों में, भाजपा प्रत्याशी की सिर्फ एक बार येन-केन-प्रकारेण 1990 में ही जीत हुई है. वर्ष 1995 में भाजपा के कामेश्वर कुशवाहा हों या वर्ष 2000 के चुनाव में अवधेश कुमार सिंह जैसे मजबूत उम्मीदवारों को भी करारी हार का सामना करना पड़ा.
पलामू: हुसैनाबाद में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति दशकों से चिंताजनक बनी हुई है. यहां पार्टी के भीतर गुटबाजी और आंतरिक कलह ने चुनावी नतीजों पर गंभीर प्रभाव डाला है. भाजपा के लिए यह क्षेत्र एक प्रकार से अभिशाप सिद्ध हुआ है, क्योंकि पार्टी के उम्मीदवारों को अक्सर अपने ही लोगों से विरोध का सामना करना पड़ता है.
1952 से लेकर 2019 तक बस एक बार जीती भाजपा
1952 से लेकर 2019 तक के विधानसभा चुनावों में, भाजपा प्रत्याशी की सिर्फ एक बार येन-केन-प्रकारेण 1990 में ही जीत हुई है. वर्ष 1995 में भाजपा के कामेश्वर कुशवाहा हों या वर्ष 2000 के चुनाव में अवधेश कुमार सिंह जैसे मजबूत उम्मीदवारों को भी करारी हार का सामना करना पड़ा. इसके पीछे मुख्य कारण है पार्टी के भीतर की गुटबाजी और आंतरिक विरोध. भाजपा की चुनावी विफलताओं के पीछे का प्रमुख कारण यह है कि किसी एक नेता को प्रत्याशी बनाए जाने पर बाकी नेता पार्टी के ही खिलाफ काम करने लगते हैं. यह आंतरिक कलह न केवल पार्टी की चुनावी संभावनाओं को कमजोर करती है, बल्कि भाजपा की साख पर भी सवाल खड़े करती है.
प्रत्याशी बनाने में भी राय शुमारी की है ज़रूरत
भाजपा को हुसैनाबाद में पार्टी नेताओं के भीतरघात के कारण एक अपवाद को छोड़कर सभी विधानसभा चुनावों में 20 प्रतिशत से कम ही वोट मिला है. गौरतलब तो यह है कि लोकसभा के पिछले तीन चुनावों में हुसैनाबाद में भाजपा प्रत्याशी को 50% से ज्यादा वोट मिलता रहा है. वर्ष 1990 के विधानसभा चुनाव में लगभग 24 प्रतिशत वोट लाकर दशरथ कुमार सिंह जनता दल के प्रत्याशी बीरेन्द्र सिंह को 163 मतों से हराकर विजयी हुए थे. आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 1985 में भाजपा के दशरथ सिंह 6.8%,वर्ष 1990 में दशरथ सिंह 24% ,वर्ष 1995 में कामेश्वर कुशवाहा 17.2%,वर्ष 2000 में अवधेश सिंह 9.6%, वर्ष 2005 में जदयू+भाजपा गठबंधन के दशरथ सिंह को 19% और 2009 में जदयू+भाजपा गठबंधन प्रत्याशी दशरथ सिंह को 19.5%,वर्ष 2014 में कामेश्वर कुशवाहा को 16.3% और वर्ष 2019 में भाजपा समर्थित निर्दलीय विनोद सिंह को 17% वोट मिला. यह आंकड़ा स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि पार्टी की आंतरिक समस्याएं उसकी चुनावी संभावनाओं को बुरी तरह से प्रभावित करती रही हैं. मंच पर भले ही ये नेता एकजुट दिखाई देते हैं, लेकिन चुनावी तराजू पर वे मेढ़क की तरह इधर-उधर उछलने लगते हैं, जिससे पार्टी की स्थिति और भी दयनीय हो जाती है. भाजपा की आंतरिक गुटबाजी का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इससे पार्टी की एकता और संगठनात्मक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. जब नेता खुद अपने प्रत्याशी के खिलाफ काम करते हैं, तो इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में निराशा फैलती है. चुनावी रणनीतियों में भी इस आंतरिक कलह का असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. इसके लिए केवल पार्टी के कार्यकर्ता ही जिम्मेवार नहीं हैं, अपितु पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कहीं ज्यादा दोषी है जो राय शुमारी तो करती है, लेकिन प्रत्याशी बनाने में राय शुमारी की कोई अहमियत नहीं रह जाती है. कार्यकर्ताओं का कहना है कि राय शुमारी में मिले वोट को आखिर उजागर क्यों नहीं किया जाता है?
हुसैनाबाद में पार्टी को अपने ही नेताओं से खतरा
"मुझे तो अपनों ने ही लूटा, गैरों में कहां दम था" वाली शायरी भाजपा की स्थिति पर सटीक बैठती है. हुसैनाबाद में पार्टी को अपने ही नेताओं से खतरा है और जब तक यह आंतरिक कलह समाप्त नहीं होती, भाजपा की चुनावी नैया पार होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. इस बार के चुनाव में तो स्थिति और भी खराब है. पार्टी ने 25 साल से एनसीपी का झंडा बुलंद करने वाले कमलेश सिंह को अपना प्रत्याशी घोषित कर नामांकन भी करा दिया है. पार्टी के इस गलत फैसले से नाराज भाजपा नेता विनोद कुमार सिंह और कर्नल संजय कुमार सिंह बागी तेवर अपनाते हुए निर्दलीय प्रत्याशी के रूप नामांकन कर पार्टी नेतृत्व को खुली चुनौती दे दी है. खबर है कि इस विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के सात मंडल अध्यक्षों में छह अभी विनोद सिंह के साथ कदमताल मिलाकर चल रहे हैं. हुसैनाबाद में अबतक के राजनीतिक इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ एक भी बागी प्रत्याशी चुनाव मैदान में दो-दो हाथ करने को उतरा हो. वर्ष 2000 के चुनाव में जब भाजपा ने जनता दल के विधायक अवधेश बाबू को प्रत्याशी बनाया था तब भी अंतर्विरोध तो था,किन्तु कोई बागी उम्मीदवार चुनाव में नहीं था. भाजपा को अगर हुसैनाबाद में अपनी स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले उसे अपनी आंतरिक गुटबाजी को खत्म करना होगा. एकजुटता और संगठनात्मक मजबूती के बिना पार्टी की चुनावी जीत की संभावना बहुत कम दिख रही है.