कैसे होगा कमलेश सिंह का बेड़ा पार! हुसैनाबाद में दलबदलुओं का जमानत जब्त होने का पुराना इतिहास
किसने फैलाई अम्बा प्रसाद का भाजपा में शामिल होने की खबर?
भाजपा के अंदर यह सवाल उठ रहा था कि अगर गठबंधन में भाजपा एनसीपी प्रत्याशी कमलेश सिंह को अपना उम्मीदवार बनाती है तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि पाला बदलने में माहिर एनसीपी विधायक कमलेश सिंह भाजपा के साथ ही रहेंगे. भाजपा नेताओं का कहना है कि अगर पूर्व के राजनीतिक घटनाक्रम को देखा जाये तो 2005 एनसीपी यूपीए घटक का हिस्सा होते हुए झामुमो के शिबू सोरेन को समर्थन देने के तुरंत बाद वापस भी ले लिया था और शिबू सोरेन की सरकार गिर गयी थी. फिर एनसीपी ने भाजपा के अर्जुन मुंडा को समर्थन दिया और फिर अर्जुन मुंडा की सरकार को अपदस्थ कर निर्दलीय मधु कोड़ा सरकार को समर्थन दे दिया था. वर्ष 2019 में एकबार फिर एनसीपी विधायक ने हेमंत सोरेन सरकार को चार साल समर्थन दिया और पांचवे साल समर्थन वापस लेकर एनडीए में शामिल होने की घोषणा कर दी.
रांची: जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज हो रही है, वैसे-वैसे पालाबदल का खेल भी अपने चरम की ओर बढ़ता नजर आ रहा है. कभी शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़ कर धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले हुसैनाबाद विधानसभा से अब तक दो दो बार विधानसभा पहुंचने वाले कमलेश सिंह भी ने अगामी तीन अक्टूबर को भाजपा में शामिल होने की घोषणा की है, इसके साथ ही बड़कागांव विधायक अम्बा प्रसाद के बारे में भी अफवाहों का बाजार गर्म है, दावा किया जा रहा है कि अम्बा प्रसाद भी विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा के दामन थाम सकती है.
किसने फैलाई अम्बा प्रसाद का भाजपा में शामिल होने की खबर?
हालांकि अम्बा प्रसाद के बारे में इस तरह के दावे पहले भी किये जाते रहे थें, और अम्बा प्रसाद हर बार इसका खंडन करती रही है. लेकिन इस बार परिस्थितियां कुछ बदली नजर आ रही है, दरअसल अम्बा प्रसाद के पिता और बड़कागांव के पूर्व विधायक योगेन्द्र साव की नजर इस बार बड़कागांव से साथ ही हजारीबाग सदर पर भी लगी हुई है, योगेन्द्र साव की चाहत हजारीबाग सदर से अपनी छोटी बेटी अनुप्रिया प्रसाद को मैदान में उतारने की है. दावा किया जाता है कि यदि कांग्रेस आलाकमान योगेन्द्र साव की इस चाहत को पूरा करने से इंकार करती है तो फिर अम्बा और योगेन्द्र साव भाजपा में शामिल होने का फैसला कर सकते हैं. हालांकि योगेन्द्र साव की चाहत के बावजूद भी यह इतना आसान नहीं रहने वाला है. क्योंकि अम्बा का भाजपा में शामिल होने का मतलब है कि आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो को अपने भाई रोशन लाल का सियासी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना होगा, तो क्या भाजपा आजसू की कीमत पर अम्बा प्रसाद को भाजपा में शामिल करवायेगी? इसकी गुंजाईश बेहद कम नजर आती है. तो फिर सवाल यह है कि अम्बा प्रसाद के पालाबदल के बारे में यह खबर उड़ कहां से रही है? कहीं इसके पीछे खुद अम्बा प्रसाद और योगेन्द्र साव की सियासी रणनीति तो नहीं है, क्या यह कांग्रेस पर दवाब बनाने की एक रणनीति तो नहीं है, जिसके कि कांग्रेस हजारीबाग विधानसभा से अनुप्रिया के नाम पर मुहर लगाने को विवश हो जाय.
क्या रंग लायेगा कमलेश सिंह का पालाबदल?
इधर कमलेश सिंह की चाहत किसी भी कीमत पर एनडीए गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने की है. इसी चाहत के कारण जब अजीत पवार ने चाचा शरद पवार से रास्ता अलग कर एनडीए का हिस्सा बनने का फैसला किया तो कमलेश सिंह ने भी अजीत पवार के खेमे में शामिल होकर एनडीए का नाव पर सवार होने का फैसला किया. कमलेश सिंह की रणनीति हुसैनाबाद के संघर्ष में उन्हे भाजपा का साथ मिल सके, लेकिन भाजपा ने झारखंड में एनसीपी को एनडीए का हिस्सेदार मानने से इंकार कर दिया. खुद प्रधानमंत्री मोदी भी इस बात का दावा कर चुके हैं कि झारखंड में एनडीए का मतलब सिर्फ आजसू भाजपा है, इस हालत में कमलेश सिंह को अपने चाहत अजीत पवार के साथ भी पूरी होती नजर नहीं आयी. जिस हुसैनाबाद को फतह करने के लिए वह भाजपा का साथ चाह रह थें, अजीत पवार के साथ रहते हुए वह चाहत पूरी होती नजर नहीं आ रही थी, इस हालत में कमलेश सिंह ने कथित धर्मनिरपेक्षता का चादर उतार कर भाजपा में शामिल होने का फैसला किया.
क्या कमलेश सिंह की मुश्किलों पर लग जायेगा विराम?
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा में शामिल होने के बाद कमलेश सिंह का सारे कील कांटे दूर हो गये हैं, क्या अब हुसैनाबाद की सीट को निकालना आसान है? क्या वह इस पालाबदल के साथ ही एक बार फिर से विधानसभा में नजर आयेंगे? तो इसको समझने के लिए एक बार हुसैनाबाद विधानसभा के अतीत तो समझना बेहद जरुरी है. आपको बता दें कि हुसैनाबाद विधानसभा क्षेत्र पलामू का एक अजूबा चुनाव परिणाम देने वाला क्षेत्र माना जाता है. इसका कारण है कि 1977 के जनता पार्टी की चुनावी लहर में पलामू की 9 विधानसभा सीटों में से 8 सीट पर जब जनता पार्टी के प्रत्याशी विजयी हुए थे तो उस समय हुसैनाबाद से कांग्रेस के हरिहर सिंह चुनाव जीत कर बिहार विधानसभा में पहुंचे थे. इसी प्रकार वर्ष 1990 में बिहार में जनता दल का बोलबाला था, तो यहां से भाजपा के दशरथ कुमार सिंह चुनाव में विजयी हुए थे. वहीं 2005 एवं 2019 में एनसीपी के कमलेश कुमार सिंह और 2014 में बसपा के कुशवाहा शिवपूजन मेहता ने चुनाव जीता. किन्तु इन सब अप्रत्याशित परिणाम के बीच एक चौंकानेवाली बात यह है कि यहां के मतदाताओं ने कभी दलबदलू और गठबंधन के प्रत्याशी को राजतिलक नहीं लगाया है. वर्ष 1990 के चुनाव में मात्र 163 वोटों से भाजपा से जीते दशरथ कुमार सिंह भाजपा छोड़कर सम्पूर्ण क्रांति दल और फिर लालू जी के साथ जनता दल और फिर समता पार्टी में जाने के बाद जब 1995 में मशाल छाप के सिंबल पर चुनाव लड़े तो उन्हें मात्र 8797 वोट मिला. चुनाव परिणाम में वह चौथे स्थान पर रहे और इसके साथ ही अपनी जमानत भी गंवानी पड़ी थी. इसी प्रकार 1995 में जनता दल से बम्पर वोटों से चुनाव जीतने वाले अवधेश बाबू जब 2000 में दलबदल कर भाजपा से चुनाव लड़े तो उन्हें मात्र 8359 वोटों से ही संतोष करना पड़ा और जमानत भी जब्त हो गयी थी. चुनाव परिणाम में अवधेश बाबू भी चौथे स्थान पर रहे थे.
हुसैनाबाद में क्या रहा है दलबदलुओं का इतिहास
अब बात करते हैं हुसैनाबाद में गठबंधन के तहत चुनावी समर में कूदे प्रत्याशी की. इसमें पूर्व विधायक दशरथ कुमार सिंह वर्ष 2005 एवं 2009 में जदयू एवं भाजपा के गठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर जदयू के सिंबल पर चुनाव लड़े. वर्ष 2005 में दशरथ सिंह को 20793 वोट और 2009 में 22163 वोट मिला और चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा. वर्ष 2009 के चुनाव में बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष बीरेन्द्र सिंह जब राजद पार्टी से बगावत कर कांग्रेस से चुनाव लड़े तो मात्र 2521 वोट ही मिले. वर्ष 2014 में दशरथ सिंह जब जदयू छोड़कर झामुमो से चुनाव लड़ा तो उन्हें 7076 वोट मिले थे. वर्ष 2014 के चुनाव में बसपा के कुशवाहा शिवपूजन मेहता ने 57275 वोट लाकर रेकार्ड मतों से चुनाव जीता. लेकिन जब 2019 में दलबदल कर आजसू से चुनाव लड़ा तो महज 15544 वोट मिला और जमानत भी जब्त हो गयी. हुसैनाबाद में एक अपवाद में राजद प्रत्याशी संजय कुमार यादव रहे हैं, संजय यादव ने कांग्रेस और झामुमो के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा, जीत दर्ज की और बाद में तीनों का दोस्ताना संघर्ष भी हुआ, लेकिन इससे संजय यादव के सियासी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. इस प्रकार चुनावी आंकड़े बताते हैं कि हुसैनाबाद के मतदाताओं ने दलबदलुओं को कभी राजतिलक नहीं लगाया है.
पिछले चुनाव में आजसू के प्रत्याशी रहे कुशवाहा शिवपूजन मेहता ने जुलाई में ही आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो के नेतृत्व में चूल्हा प्रमुख सम्मेलन के बहाने हुसैनाबाद से अपनी दावेदारी का संकेत दे दिया था. वैसे कुशवाहा शिवपूजन मेहता के साथ ही आजसू खेमे से एक और नाम भी चर्चा में उछल रहा था, वह नाम पूर्व डीआईजी संजय रंजन का है. इस हालत यदि भाजपा कमलेश सिंह को हुसैनाबाद से अपना उम्मीदवार बनाती है तो यह शिवपूजन मेहता के साथ ही संजय रंजन के लिए भी एक बड़ा झटका होगा.
भाजपा ने क्यों लगायी भगवा पट्टा धारण करने की शर्त
आपको बता दें कि भाजपा के अंदर यह सवाल उठ रहा था कि अगर गठबंधन में भाजपा एनसीपी प्रत्याशी कमलेश सिंह को अपना उम्मीदवार बनाती है तो फिर इस बात की क्या गारंटी है कि पाला बदलने में माहिर एनसीपी विधायक कमलेश सिंह भाजपा के साथ ही रहेंगे. भाजपा नेताओं का कहना है कि अगर पूर्व के राजनीतिक घटनाक्रम को देखा जाये तो 2005 एनसीपी यूपीए घटक का हिस्सा होते हुए झामुमो के शिबू सोरेन को समर्थन देने के तुरंत बाद वापस भी ले लिया था और शिबू सोरेन की सरकार गिर गयी थी. फिर एनसीपी ने भाजपा के अर्जुन मुंडा को समर्थन दिया और फिर अर्जुन मुंडा की सरकार को अपदस्थ कर निर्दलीय मधु कोड़ा सरकार को समर्थन दे दिया था. वर्ष 2019 में एकबार फिर एनसीपी विधायक ने हेमंत सोरेन सरकार को चार साल समर्थन दिया और पांचवे साल समर्थन वापस लेकर एनडीए में शामिल होने की घोषणा कर दी. यही कारण है कि भाजपा के द्वारा यह साफ कर दिया गया कि यदि भाजपा का साथ चाहिए तो भगवा पट्टा पहनना ही होगा और इसके बाद कमलेश सिंह के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा. लेकिन फिर से वही सवाल क्या कमलेश सिंह के इस पालाबदल पर जनता अपनी मुहर लगायेगी?