क्या हेमंत सोरेन ने स्टेट्समैन बनने का मौका गंवा दिया है?

दो महीने का वक्त चुनावी आचार संहिता में बीत जाना तय

क्या हेमंत सोरेन ने स्टेट्समैन बनने का मौका गंवा दिया है?
हेमंत सोरेन, चंपाई सोरेन, कल्पना सोरेन के साथ अन्य

हेमंत सोरेन के चंपाई सोरेन को पद से हटाकर मुख्यमंत्री बनने का क्या होगा असर, क्या हेमंत सोरेन ने चंद महीनों के लिए जल्दबाजी भरा फैसला लिया है।

वक्त बहुत सारे लोगों को जीवन में कम से कम एक मौका देता है कि वह लीक तोड़ कर नया रास्ता बनाये। पांच महीने बाद जेल से बाहर आने पर झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन को भी भी वक्त ने वह मौका दिया था। झामुमो ही नहीं झारखंड के इंडिया गठबंधन में वे सर्व स्वीकार्य नेता के रूप में पहले ही स्थापित हो चुके थे। दूर-दूर तक इंडिया गठबंधन में उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं दिखती थी, न पार्टी के अंदर से और न सहयोगी दलों की ओर से। बल्कि अब वे राष्ट्रीय फलक पर चर्चा में थे। 

जेल के पांच महीने के बाद आगे के पांच महीने उनके पास विधानसभा चुनाव की पिच पर भरपूर मेहनत करने का वक्त होता - एक नेता के रूप में जिसे परिस्थितियों ने ऐसे मौके दिये या जिसके सामने ऐसी कठिन परिस्थितियां आयीं।  हालात ने इस शख्स के राजनीति कद को लोगों के अनुमान से पक्ष-विपक्ष के कई सीनियर लीडर्स से कहीं बड़ा कर दिया। असली नेता विपरीत और मुश्किल हालात से गढे जाते हैं। सामान्य तौर पर विधायक-सांसद, मंत्री-मुख्यमंत्री चुने जा सकते हैं, बन सकते हैं।

 

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लेकिन, 48 साल के हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनाये जाने के लिए 67 साल के उस बुजुर्ग को बिना किसी विवाद, किसी चर्चा, किसी सार्वजनिक जिरह के पद से इस्तीफा देना पड़ा जिनके पास मुख्यमंत्री के रूप में अब मात्र पांच कामकाजी महीने बचे थे, जिसमें करीब दो महीने का वक्त चुनावी आचार संहिता में बीत जाना तय था।

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हूल दिवस के दिन भोगनाडीह से लौटने के दौरान झालमुढी खाते हेमंत सोरेन।

 

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क्या यह अच्छा न होता कि इन पांच महीनों की पहली खेप में जब चुनाव आचार संहिता न लागू हुआ होता हेमंत सोरेन झारखंड में इंडिया गठबंधन के सर्वाेच्च व सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में पूरे राज्य का दौरा कर लेते। हर जिले, हर कस्बे और दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने की कोशिश करते, और फिर जब चुनावी समर का ऐलान होता तो चुनावी दौरे अलग होता। 

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हेमंत सोरेन अगले दो-तीन महीने का वक्त एक नेता के रूप में खर्च कर सकते थे, जो अभी-अभी जेल से बाहर आया है और जिसको लेकर अदालत ने यह टिप्पणी की कि इनके खिलाफ कोई मजबूत साक्ष्य नहीं है। समझिए कि इस सूत्र वाक्य के साथ वे जनता में जाते और लोगों को यह अहसास कराते कि उन्हें तुरंत कुर्सी का भी कोई लालच नहीं है तो उनकी लोकप्रियता कहां पहुंच सकती थी।

जो हेमंत कल तक अदालती टिप्पणियों व रिहाई के बाद विराट लग रहे थे अब उन पर भाजपा हमलावर है। भाजपा के नेता वीडियो बना कर पूछ रहे हैं कि आपको ऐसी हड़बड़ी क्या थी, कुछ महीने चुनाव के थे जीत कर फिर सीएम बन सकते थे। यह भी कह रहे हैं कि झामुमो के दूसरे आदिवासी नेता समझ जायें कि वे पार्टी में सिर्फ सोरेन परिवार की पालकी ढोने के लिए हैं। 

झामुमो से या सोरेन परिवार से चंपाई सोरेन का किसी प्रकार के मतभेद की भी कोई खबर इन पांच महीने में नहीं आयी। अब  अगर ऐसी कुछ खबरें आ रही हैं, तलाशी जा रही हैं या फिर गढी जा रही हैं तो उनका पता नहीं। और छोटे मतभेद, छोटी असहमतियां तो होना स्वाभाविक है, अगर वह बड़ा हो तो निर्णायक भी हुआ जा सकता है, होना भी चाहिए।

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जेल से बाहर आने के बाद भगवान बिरसा मुंडा की प्रतिमा पर माल्यार्पण के दौरान हेमंत सोरेन।

 

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यहां नीतीश कुमार याद आते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला लिया था। नीतीश कुमार ने कुछ महीनों के लिए खुद ही खुद को सक्रिय राजनीतिक से निर्वासन में भेज दियाा। सत्ता में आते ही कुछ महीने में जीतन राम मांझी प्रभाव दिखाने लगे। वे पार्टी में गुट तैयार करने की कोशिश करते दिखने लगे और यह भूलने लगे थे कि वे जदयू के एक निर्वाचित नहीं मनोनीत नेता हैं। जैसा कि कई मौकों पर नीतीश कुमार ने कहा है कि उनके पास इसकी शिकायतें पार्टी के लोग पहुंचाने लगे। शुरुआती अनदेखेपन के बाद उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। और यह गुटबाजी किस हद तक पहुंच चुकी थी, यह बिहार और देश ने तब देखा जब सत्ता से

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हूल दिवस के दिन भोगनाडीह गांव में हेमंत सोरेन, चंपाई सोरेन व कल्पना सोरेन।

 

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किये जाने की स्थिति में जीतन राम मांझी व नीतीश कुमार के समर्थकों में पटना में पार्टी कार्यालय व अन्य जगहों पर झड़पें हुईं। यहां चंपाई सोरेन के साथ तो ऐसी कोई स्थिति कभी दिखी ही नहीं। ऐसे में दोनों हालात की तुलना नहीं की जा सकती। चंपाई सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की विदाई के आखिरी क्षण तक विनम्र, उपलब्ध और सहज दिखते रहे - यह कह कर भी कि राजभवन चलना होगा तो बताइएगा।

 

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शहीद सिदो मुर्मू व कानू मुर्मू की प्रतिमा पर भोगनाडीह में माल्यार्पण करते हेमंत सोरेन।

 

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हेमंत सोरेन अभी 50 साल से कम उम्र के हैं। भारतीय राजनीति की उम्र सीमा के फार्मूले के हिसाब से वे अभी लगभग तीन दशक लंबी राजनीतिक पारी सहज ढंग से खेल सकते हैं। राज्य और केंद्र में उनके लिए कई मौके आएंगे। एक आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में जेल जाकर उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिकता हासिल की। यह बहुत अकारण नहीं था कि न सिर्फ झारखंड में भाजपा सभी जनजातीय सीट हार गई, बल्कि देश में भी कई जगह उसे जनजातीय सीटों पर नुकसान झेलना पड़ा। 2019 में भाजपा ने देश में 32 एसटी सीट जीती थी, लेकिन इस बार 25 सीटें हासिल हुईं। हेमंत सोरेन पूरे देश में आदिवासी समुदाय से आने वाले सबसे बड़े नेता के रूप में खुद को भलीभांति स्थापित कर सकते थे। लेकिन, अब ऐसा लगता है कि इस बार उन्होंने जल्दबाजी कर दी है।

Edited By: Rahul Singh

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