झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ और धर्मातरण: हकीकत या चुनावी एजेंडा
चर्चित लेखक और सोशल एक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग का शोधपरक आलेख
धर्म परिवर्तन को हमेशा से दोहरे मापदंड पर तौला गया है. जब आदिवासी समाज के द्वारा ईशाई या मुस्लिम धर्म अपनाया जाता है तो उसे धर्मांतरण कहा जाता है, लेकिन हिन्दू धर्म अपनाने पर घर वापसी का टैग लगाया जाता है. यही सबसे बड़ी गड़बड़ी है, जिसके कारण लम्बे अर्से से सरना और ईसाई आदिवासियों के साथ अन्याय होता रहा है.
रांची: झारखंड में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक पहुंच रहा है, ‘‘बंगलादेशी घुसपैठी’’ एवं ‘‘धर्मांतरण’’ के मामले में दायर जनहित याचिकाओं को एक साथ मिलाकर झारखंड उच्च न्यायालय निरंतर सुनवाई कर रहा है. लोकसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी पांच सीटें हारने के बाद भाजपा की चिंता बढ़ गई है. उसके सामने झारखंड में एक बार फिर से सरकार बनाने के लिए आदिवासियों के आरक्षित 28 सीटों में से कम से कम 12 सीटें जीतने की चुनौती है. 2014 से 2019 के बीच झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास के शासनकाल में लिए गये फैसले से भाजपा झारखंड में आदिवासी विरोधी पार्टी के रुप में स्थापित चुकी है, उसकी कोशिश इस स्थापित छवि से बाहर निकलने की है.
बंग्लादेशी घुसपैठ एक फर्जी मुद्दा
यही वजह है कि भाजपा ‘‘बंगलादेशी घुसपैठी’’ एवं ‘‘धर्मांतरण’’ जैसे मुद्दों को अपना प्रमुख मुद्दा बनाने में जुटी हुई है और इसके लिए केन्द्र सरकार एवं न्यायपालिका का सहारा लिया जा रहा है. केन्द्र सरकार ने झारखंड उच्च न्यायालय में 51 पेज का शपथ-पत्र दायर किया है, जिसमें 1951 से 2011 की जनसंख्या को आधार बनाया गया है. इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि केन्द्र सरकार ने शपथ-पत्र में कहा है कि उसके पास ‘‘बंगलादेशी घुसपैठिए’’ को लेकर कोई आंकड़ा नहीं है. फिर भाजपा नेताओं के द्वारा ‘‘बंगलादेशी घुसपैठी’’ के सवाल पर इतना बवाल क्यों किया जा रहा है? भाजपा दावा करती थी कि केन्द्र की सत्ता हाथ में आते ही सभी बांग्लादेशी घुसपैठियों को चुन-चुनकर देश से बाहर निकाला जायेगा, लेकिन अब एक दशक तक केन्द्र की सत्ता में रहने के बाद आज बोल रही है कि उसके पास कोई बांग्लादेशी घूसपैठ का कोई आंकड़ा नहीं है? तो क्या ‘‘बंगलादेशी घुसपैठिए’’ एक फर्जी मुद्दा है?
शपथ पत्र के माध्यम से कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश
केन्द्र सरकार ने शपथ-पत्र के द्वारा न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश की है. केन्द्र सरकार ने शपथ-पत्र में कहा है कि संताल परगना में आदिवासियों की जनसंख्या 44 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत हो गई है, जिसका एक बड़ा कारण आदिवासियों का ईसाई धर्म में धर्मांतरण होना है, जबकि हकीकत यह है कि 1951 से 2011 तक की जनगणना में ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की गिनती ‘‘अनुसचित जनजाति’’ के रूप में की गई है. फिर किस आधार पर केन्द्र सरकार ने यह आंकड़ा दिया है? झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की जनसंख्या कम होने का सबसे बड़ा कारण बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा, उतरप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से बड़े पैमाने पर बाहरी लोगों का आगमन एवं बसाहट है, जिसके बारे में केन्द्र सरकार एवं भाजपा का पूरा कुनबा चुप है क्योंकि यही लोग भाजपा के मूल वोट बैंक हैं? क्या इस आंकड़ा का मकसद सिर्फ ‘‘धर्मांतरण’’ के नाम पर आदिवासियों के बीच नफरत पैदा करते हुए उनका वोट बटोरना है?
झारखंड में घट रही ईशाई धर्मालंबियों की संख्या
यद्यपि ‘‘धर्मांतरण’’ बात करे तो झारखंड का गठन वर्ष 2000 में हुआ लेकिन इस क्षेत्र में पड़ने वाले जिलों के जनगणना आँकड़े दर्शाते हैं कि झारखंड में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या क्रमशः वर्ष 1951 में 4.12 प्रतिशत था, 1961 में 4.17 प्रतिशत, 1971 में 4.35 प्रतिशत, 1981 में 3.99 प्रतिशत, 1991 में 3.72 प्रतिशत, 2001 मे 4.10 प्रतिशत एवं वर्ष 2011 में यह 4.30 प्रतिशत है। इसका अर्थ यह है कि राज्य में ईसाई धर्मावलंबियों की जनसंख्या में पिछले सात दशकों में 1 प्रतिशत की भी वृद्धि नहीं हुई है। इसी तरह ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या 2001 में 14.5 प्रतिशत थी जो घटकर 2011 में 14.4 प्रतिशत हो गई. इससे स्पष्ट है कि ईसाई धर्म मानने वाले आदिवासियों की जनसंख्या घट रही है, जिसका सीधा अर्थ है कि आदिवासियों का ईसाई धर्म में धर्मांतरण नहीं हो रहा है और भाजपा और संघ परिवार का आरोप तथ्यों पर आधारित नहीं है. महज एक आधारहीन आरोप है.
ईशाई धर्म अपनाने पर धर्मान्तरण और हिन्दू बनने पर घर वापसी
दरअसल धर्म परिवर्तन को हमेशा से दोहरे मापदंड पर तौला गया है. जब आदिवासी समाज के द्वारा ईशाई या मुस्लिम धर्म अपनाया जाता है तो उसे धर्मांतरण कहा जाता है, लेकिन हिन्दू धर्म अपनाने पर घर वापसी का टैग लगाया जाता है. यही सबसे बड़ी गड़बड़ी है, जिसके कारण लम्बे अर्से से सरना और ईसाई आदिवासियों के साथ अन्याय होता रहा है. जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि झारखंड में 39.7 प्रतिशत आदिवासी हिन्दू धर्म को मानते है. जबकि मात्र 14.5 प्रतिशत आदिवासी ही ईसाई धर्म के अनुयायी हैं. यहां मौलिक प्रश्न यह है कि यदि ईसाई धर्म मानने वाले 14.5 प्रतिशत आदिवासी धर्मांतरण के दायरे में आते हैं तो हिन्दू धर्म मानने वाले 39.7 प्रतिशत आदिवासी धर्मांतरण के दायरे में क्यों नहीं आते हैं? क्या झारखंड उच्च न्यायालय को ‘‘धर्मांतरण’’ की परिभाषा, बाहरी जनसंख्या का अनुसूचित क्षेत्र में आगमन एवं बसाहट पर विचार नहीं करना चाहिए? क्या मौजूदा दौर में ‘‘अपर जूडिसियरी’’ के द्वारा भी किसी पार्टी का एजेंडा सेट किया जा रहा है? और यदि ऐसा है तो यह बेहद चिंताजनक स्थिति है, तो क्या न्यायपालिका भी भारतीय संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हेतु निष्पक्ष भूमिका में नहीं है? यह सवाल खड़ा होता है.