सीएम हेमंत के विधानसभा क्षेत्र का गांव बड़ा पत्थरचट्टी, भारी बरसात में पानी की जंग
सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेंरेज ने सामने लाया पहाड़िया जनजाति का संघर्ष
करीबन दो दशक से राइट टू फूड और दूसरे सामाजिक आन्दोलनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेंरेज ने पहाड़िया जनजाति के इस संघर्ष और त्रासदी को अपने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स पर साक्षा करते हुए लिखा है कि “खाली वर्त्तनों का यह जखीरा किसी मरुस्थलीय प्रदेश का नहीं, अपितु हमारे राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के विधानसभा चुनाव क्षेत्र बरहेट के ग्राम बड़ा पत्थरचट्टी का है. यहाँ 300 की आबादी बूंद-बूंद के लिए मोहताज हैं. दर्जनों आवेदन के बाद भी प्रशासन कानों में तेल डाल रखा है. आजादी के 77 साल और अलग राज्य के 24 वर्ष बाद भी आदिवासी (आदिम जनजाति) गाँवों की बदहाली के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है.
रांची: सियासत में राजनेताओं की हनक चाहे जितनी कमाल की हो, लेकिन सत्ता की असली ताकत नौकरशाहों के हाथ में होती है. यह नौकरशाह ही हैं, जिनकी कलम से आम आदमी की दुश्वारियों का समाधान होता है, तो कई बार पूरी जिंदगी ही दुश्वार बन जाती है, कुछ ऐसी ही दुश्वारियों से सीएम हेमंत का विधानसभा का एक गांव पत्थरचट्टिया के ग्रामीण गुजरने को अभिशप्त हैं. राजधानी रांची में भले ही आदिवासी-मूलवासी के नारा की गुंज हो. जल जंगल और जमीन पर अधिकार और आदिवासी अस्मिता के सवाल पर हर सियासी दल की अपनी- अपनी सियासत हो, लेकिन इन नारों से आदिवासी समाज की जिंदगी में कितना बदलाव आता है, उसका आकलन तो उनकी जिंदगी के जद्दोजहद को देख कर ही समझा जा सकता है. और उनका जद्दोजहद क्या है, उसे बरहेट प्रखंड का बरामसिया पंचायत का एक गांव बड़ा पत्थरचट्टी की तस्वीर से समझा जा सकता है.
खाली वर्त्तनों का यह जखीरा किसी मरुस्थलीय प्रदेश का नहीं अपितु हमारे राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के विधान सभा चुनाव क्षेत्र बरहेट के ग्राम बड़ा पत्थरचट्टी का है। यहाँ 300 की आबादी बूंद-बूंद के लिए मोहताज हैं। दर्जनों आवेदन के बाद भी प्रशासन कानों में तेल डाल रखा है। pic.twitter.com/0A74E8ggg1
— JAMES HERENJ (@james_herenj) August 8, 2024
पहाड़ पर बसा पहाड़िया जनजाति का गांव बड़ा पत्थरचट्टी
आपको बता दें कि बड़ा पत्थरचट्टी पहाड़ पर बसा पहाड़िया जनजाति का एक छोटा सा गांव है, कुल जमा 65 घरों की बसावट है. बरामसिया पंचायत के दूसरे गांवों में तो नल जल योजना के तहत घर- घर पानी पहुंचा दिया गया है. लेकिन बड़ा पत्थरचट्टी के ग्रामीणों को यह सौभाग्य नहीं मिला. आज भी पूरा गांव बरसों पुराने एक कुंए पर पानी के लिए निर्भर है. सुबह की शुरुआत ही पानी के जंग के साथ होती है, सूरज की पहली किरण के साथ ही पूरा गांव कुंए की ओर दौड़ता नजर आता है. कई बार अधिकारियों से गुहार लगायी गई, लेकिन प्रखंड कार्यालय में बाबूओं के शोर में ग्रामीणों की फरियाद कहीं खो गयी. सफेद कागज पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा उनकी जिंदगी का दर्द साहबों के ऑफिस के डस्टबीन की भेंट चढ़ गया, आश्वासनों की पट्टी के साथ भरोसे की गोली थमा दी गयी. लेकिन बदला कुछ नहीं. साल दर साल यही कहानी दुहराई जाती रही.
सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेंरेज ने सामने लाया पहाड़िया जनजाति का संघर्ष
करीबन दो दशक से राइट टू फूड और दूसरे सामाजिक आन्दोलनों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेंरेज ने पहाड़िया जनजाति के इस संघर्ष और त्रासदी को अपने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स पर साक्षा करते हुए लिखा है कि “खाली वर्त्तनों का यह जखीरा किसी मरुस्थलीय प्रदेश का नहीं, अपितु हमारे राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के विधानसभा चुनाव क्षेत्र बरहेट के ग्राम बड़ा पत्थरचट्टी का है. यहाँ 300 की आबादी बूंद-बूंद के लिए मोहताज हैं. दर्जनों आवेदन के बाद भी प्रशासन कानों में तेल डाल रखा है.
आजादी के 77 साल और अलग राज्य के 24 वर्ष बाद भी आदिवासी (आदिम जनजाति) गाँवों की बदहाली के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। क्या यही दिन देखने के लिए पहाड़िया लोगों ने अंग्रेजों/ जमींदारों/ सूदखोरों के विरुद्ध पहाड़िया विद्रोह किया था?” इसके साथ ही एक आवेदन भी है. एक बार फिर से शासन-प्रशासन से पानी की गुहार लगायी गयी है, अब देखना होगा कि इस बार भी पहाड़िया जनजाति के हिस्से पानी आता है, या फिर से रद्दी की टोकरी में डाल कर आश्वासनों की घुट्टी पिला दी जाती है.