लालू की ठेंठ गंवई बोली के बगैर चुनावी रंग फीका

-आलोक कुमार
रांची: राजनीति में लालू प्रसाद यादव की बात अपने आप में एक अलग अहसास कराती है। हम ऐसा भी कह सकते हैं, कि उनके बिना चुनावी मिजाज फीका प्रतित होता है। दरअसल आज इसकी प्रासंगिता व चर्चा इसलिए भी अहम है, क्योंकि धुंआधांर लोकसभा चुनाव प्रचार के बीच लालू के पूूरे राजनीतिक कार्यकाल के दौरान ऐसा पहली बार हो रहा है, कि उनकी आवाज हमें सुनाई नही दे रही है। उनकी दमदार बोली व चुटिली शैली की मानों सभी को आदत सी पड़ चुकी है, लिहाजा चुनावी रंग हमें कहीं न कहीं से खाली स्थान का अनुभव करा रहा है।

लालू की आवाज को लेकर जहां राजनीतिक वर्ग से लेकर उनके कार्यकर्ता वर्ग तक में मायूसी है, वहीं इसी राजनीतिक हालात के कारण उनके परिवार में पहली बार विवाद उभरकर सामने आया है। लालू बाहर होते तो शायद इस पर आसानी से अंकुश लगा सकते थे। बगैर लालू के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीद्वारों को दमदार नुकसान उठाना पड़ सकता है। परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उनकी सक्रियता को लोगों ने महसूस किया। इसके बाद पिछले संसदीय चुनाव में जब राबड़ी देवी ने पति की तैयार सियासी जमीं पर दांव आजमाया तो उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी से पराजय का सामना करना पड़ा। इस बार आनेवाला समय तय करेगा। हालांकि ऐसा माना जा रहा है कि अब लालू परिवार के चुनावी रण में कूदने पर विराम लग चुका है।
लालू के राजनीतिक कैरियर की यदि बात की जाय तो ये बहुत दिलचस्प है। संपूर्ण क्रांति के अग्रदूत जेपी का इनपर काफी प्राभाव रहा। उन्हीं की कृपा पात्र बने तो छात्र राजनीति में इनकी तूती बोलने लगी। छपरा के वोटरों ने लालू को अपने दिल में उतार लिया। 1977 में जनता पार्टी की लहर में लालू 29 साल की उम्र में पहली बार 6ठी लोकसभा चुनाव में सांसद बने। यहां से फिर पीछे मुड़कर नही देखा और एक कदम एक उपर की सीढ़ी चढ़ते गये। छपरा संसदीय सीट से 1989, 2004 और सारण लोक सभा क्षेत्र से 2009 में भी चुनाव जीतने में कामयाब रहे। राजनीतिक कद दिनोदिन आसमान छूता गया, मुख्यमंत्री से लेकर केंद्र की राजनीति में रेलमंत्री तक का सफर तय कर चुके श्री यादव का अंदाज आज भी लोगों के दिल से नही निकलता है। हालांकि अचानक हालात बदल गये और जिस छपरा से उन्होंने अपने राजनीतिक सफर का आगाज किया था वो बिहार के सारण की संसदीय राजनीति से समाप्त हो गया।