साक्षात्कार: पिछले दो दशक से राइट टू फूड पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज से खास बातचीत
मौजूदा राजनीतिक हालात पर आदिवासी-मूलवासी समाज के नजरिये को पेश करते जेम्स हेरेंज
जमीन पर बदलाव तो दिख रहा है, पिछले पांच वर्षों में भूख से मौत की कोई खबर सामने नहीं आयी, इसका सबसे बड़ा कारण सभी जरुरतमंदों के हाथ में राशन कार्ड का होना है. जिस तरीके से हेमंत सरकार में करीबन 52 लाख पीएच, 9 लाख अंत्योदय और 5 लाख ग्रीन राशन कार्ड बनाया गया, उसका असर जमीन पर भी देखने को मिला. कमसे कम इस मोर्चे पर तो सरकार सफल दिख रही है
देवेन्द्र कुमार: वर्ष 2017 में सिमडेगा की संतोषी कुमारी की भूख से मौत पर बड़ा हंगामा बरपा था, आज के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और उस वक्त के झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने तब दावा किया था कि रघुवर दास की सरकार ने 11 लाख राशन कार्ड रद्द कर गरीबों के मुंह से निवाला छीना है, क्या हेमंत सरकार में जमीनी स्थिति में कोई बदलाव आया है?
जेम्स हेरेंज: जमीन पर बदलाव तो दिख रहा है, पिछले पांच वर्षों में भूख से मौत की कोई खबर सामने नहीं आयी, इसका सबसे बड़ा कारण सभी जरुरतमंदों के हाथ में राशन कार्ड का होना है. जिस तरीके से हेमंत सरकार में करीबन 52 लाख पीएच, 9 लाख अंत्योदय और 5 लाख ग्रीन राशन कार्ड बनाया गया, उसका असर जमीन पर भी देखने को मिला. कमसे कम इस मोर्चे पर तो सरकार सफल दिख रही है.
देवेन्द्र कुमार: चंपाई सोरेन के पालाबदल से सियासी गतिविधियां तेज है? इस सियासी उलटफेर पर आदिवासी-मूलवासी समाज में किस तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है.
जेम्स हेरेंज: चंपाई सोरेन हो या लोबिन हेम्ब्रन इनका पूरा अतीत जल, जंगल और जमीन की सियासत में गुजरा है. बाबूलाल मरांडी की तरह यदि इन लोगों ने भी एक सियासी पार्टी बनाकर जल, जंगल और जमीन के मुद्दे के साथ एक नयी पारी की शुरुआत करते, तो शायद बन जाती, कुछ सीटों पर झामुमो को नुकसान भी संभव था, लेकिन जिस तरीके से वैचारिक रुप से यू टर्न लेते हुए हरा के भगवा टोपी धारण किया गया. आदिवासी-मूलवासी समाज के बीच इसका मैसेज ठीक नहीं गया. आदिवासी-मूलवासी के बीच इनकी छवि खलनायक की बन रही है. इनकी पूरी लड़ाई ही भाजपा की नीतियों के विरुद्ध में रही है, सियासत का यह यू टर्न आदिवासी-मूलवासी समाज स्वीकार करता हुआ दिखलायी नहीं पड़ता.
देवेन्द्र कुमार: चंपाई सोरेन हो या लोबिन हेम्ब्रम दिशोम गुरु के साथ एक लम्बा रिश्ता रहा, ये सभी दिशोम गुरु के पाठशाला से निकले हुए बेहद अनुशासित और भरोसेमंद शिष्य माने जाते थें. आखिर कौन सी परिस्थितियां निर्मित हुई कि एक-एक कर सभी को साथ छोड़ना पड़ा. क्या हेमंत सोरेन पुराने नेताओं को साथ लेकर चलने में असमर्थ है.
जेम्स हेरेंज: निश्चित रुप से कुछ कमियां तो रही होगी, यह ठीक है कि पालाबदल करने वालों की अपनी सियासी महत्वाकांक्षा भी होगी, जो शायद झामुमो के अंदर पूरी होती नजर नहीं आ रही होगी, लेकिन जिस तरीके से भाजपा की सवारी की गयी, इन लोगों के इस बगावत के साथ ही चार दशक की अपनी जमा पूंजी को भी दांव पर लगा दिया है. कोई उज्जवल भविष्य तो नजर नहीं आता.
देवेन्द्र कुमार: आप को पूरे झारखंड के भ्रमण पर रहते हैं, संताल हो या कोल्हान, जनभावनाओं की नब्ज को बेहतर समझते हैं, क्या मधु कोड़ा का भाजपा में शामिल मात्र से झामुमो के हाथ से कोल्हान का किला निकलने वाला है.
जेम्स हेरेंज: इसके पहले भी संताल से सीता और कोल्हान से गीता को लाकर प्रयोग किया गया था, लेकिन उसका परिणाम क्या निकला? आदिवासी-मूलवासी समाज के लिए किसी भी कीमत पर भाजपा विकल्प नहीं हो सकता, नेताओं के पालाबदल से आदिवासी समाज के नजरिये में कोई बदलाव आता हुआ दिखलाई नहीं पड़ता.
देवेन्द्र कुमार: एक हेमंत को सात-सात पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्रियों के चक्रव्यूह में फंसाने की कोशिश जारी है. क्या हेमंत का हाल भी महाभारत के अभिमन्यू का होने वाला है. सियासी बलि चढ़ने वाली है.
जेम्स हेरेंज: महाभारत काल से हम आधुनिक युग का सफर तय कर चुके हैं, अब अभिमन्यू चक्रव्यूह में नहीं फंसता है, अब वह दूसरों को फंसाता है, यदि ऐसा नहीं होता तो फिर सात सात महारथियों की जरुरत क्यों पड़ती, बोरो प्लेयर को मैदान में उतारना क्यों पड़ता.
देवेन्द्र कुमार: चुनाव तो दूसरे कई राज्यों में भी है, लेकिन भाजपा अपना पूरा जोर झारखंड में ही क्यों है. क्या इसकी वजह झारखंड की खनीज संपदा है, कॉरपोरेट का दवाब भी है, आदिवासी-मूलवासी की बात करने वाली सरकार के साथ कॉरपोरेट कंपनियां अपने आप को सहज नहीं पाती?
जेम्स हेरेंज: देश के दो ऐसे राज्य है, जिसे भाजपा किसी भी कीमत पर हाथ से निकलने देना नहीं चाहती. पहला आर्थिक राजधानी महाराष्ट्र और दूसरा देश की 40 फीसदी खनिज संपदा वाला राज्य झारखंड. आज दोनों ही जगह भाजपा की स्थिति बेहद कमजोर है. आपने देखा होगा कि महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनाने के लिए कौन-कौन सा खेल नहीं हुआ, कितनी पार्टियां तोड़ी गयी, संवैधानिक प्रावधानों का धज्जियां उड़ाया गया. बावजूद इसके आज महाराष्ट्र में भाजपा कहां खड़ी है? कुछ यही स्थिति झारखंड की है. देश की कुल खनिज संपदा का 40 फीसदी इसकी धरती के नीचे समाहित होना, इस सियासी बेचैनी का मूल वजह है.
देवेन्द्र कुमार: क्या चंपाई सोरेन के बगावत के साथ ही सरना धर्म कोड, 1932 का खतियान या फिर आदिवासी समाज के दूसरे ज्वलंत मुद्दे नेपथ्य में चले जायेंगे या आगे भी आदिवासी समाज की राजनीति इन्ही मुददों के इर्द-गिर्द घूमेगी.
जेम्स हेरेंज: जितना मैं घूमा हूं, संताल से लेकर कोल्हान और पलामू से लेकर कोडरमा का खाक छाना है, हेमंत सरकार की वापसी को लेकर कोई संदेह नहीं है, बावजूद इसके यदि हेमंत सरकार सत्ता में नहीं आ पाती है, तो निश्चित रुप से आदिवासी-मूलवासी समाज के लिए एक बड़ा झटका होगा? क्योंकि सिर्फ हेमंत की सत्ता ही नहीं जायेगी, जल, जंगल और जमीन के साथ ही आदिवासी-मूलवासी समाज का, जो दूसरे सामाजिक- सियासी मुद्दे पर हैं, सभी एकबारगी नेपथ्य में डाल दिये जायेंगे, तब ना तो सरना धर्म कोड मिलेगा और ना ही 1932 के खतियान की बात होगी.
देवेन्द्र कुमार: झाममो छोड़ते वक्त लोबिन हेम्ब्रम ने एक बड़ा आरोप लगाया है कि अब वह झामुमो नहीं रहा, जो गुरुजी के वक्त में हुआ करता था, आदिवासी-मूलवासियों की बात करनी वाली झामुमो में गैर झारखंडिय़ों की चलती है. सारे फैसले गैरझारखंडियों के हाथ में है. क्या वाकई झामुमो के अंदर गैर झारखंडियों का दवाब बढ़ रहा है, और इसके कारण आदिवासी समाज में भी एक नाराजगी है.
जेम्स हेरेंज: निश्चित रुप से आदिवासी समाज के बीच यह धारणा बनती दिख रही है. इसके कारण एक सामाजिक-सियासी बेचैनी भी है. लेकिन मुश्किल यह है कि विकल्प क्या है? यही कारण है कि हमने कहा था कि यदि अपने आप को भाजपा में तिरोहित करने के बजाय लोबिन और चंपाई सोरेन ने खुद की सियासी पार्टी बनाकर एक आदिवासी-मूलवासी समाज के सामने एक विकल्प पेश करते तोचेहरे को सामाजिक स्वीकृति मिलती.
देवेन्द्र कुमार: हेमंत सरकार 1932 का खतियान, सरना धर्म कोड, नियोजन नीति, स्थानीय कंपनियों में 75 स्थानीय युवकों को 75 फीसदी आरक्षण का वादा कर सत्ता में आयी थी. आप हेमंत सरकार को इस वादे से कितना दूर और कितना पास पाते हैं. यदि आपके पास 10 अंक हो तो कितना अंक देंगे
जेम्स हेरेंज: सत्ता के साथ ही हेमंत सरकार को कोरेना महामारी की चुनौतियों से गुजरना पड़ा, पूरे देश से जो भयावह तस्वीर सामने आयी, उस तुलना में झारखंड में कोई कोहराम की स्थिति नहीं बनी, और सबसे बड़ी बात जब पूरे देश में मजदूरों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया था, तब यह हेमंत सरकार ही थी, जिसने सारे झारखंडी मजदूरों को हर वापस लाने का काम किया. देश में पहली बार मजदूरों को हवाई जहाज से वापस लाया गया. रही बात प्रशासनिक मिशनरी की, यह सरकार इस मोर्चे पर कुछ कमजोर नजर आती है, और इसका कारण है कि कई अधिकारी भाजपा के माइंड सेटअप के हैं, जो काम ही नहीं करना चाहते, उनकी कोशिश सिर्फ फाइले लटकाने की होती है, इस मामले में रघुवर दास के समय शुरु की गया 181, जनसंवाद की व्यवस्था कहीं बेहतर थी, बावजूद इसके हम इस सरकार को 10 में 8 अंक देंगे.
देवेन्द्र कुमार: चुनाव के ठीक पहले मईया सम्मान योजना की शुरुआत, अबुआ आवास योजना पर फोकस, सर्वजन पेंशन, क्या ये सारी योजनाएं महज एक चुनावी झूनझुना है या इसका असर चुनाव में भी देखने को मिलेगा.
जेम्स हेरेंज: अक्सर राजधानी में बैठकर देखने के बाद यही एहसास होता है, लेकिन कभी गांव-देहात का सफर कीजिये, और इन योजनाओं का प्रभाव देखिये. यदि अधिकारियों ने इस दो महीने में भी इन योजनाओं को इमानदारी के साथ सरजमीन पर उतार दिया तो इसका असर चुनाव में साफ साफ देखने को मिलेगा, खास कर मईया सम्मान योजना को लेकर गांव- देहात, आदिवासी मूलवासी समाज की महिलाओं के बीच बड़ा उम्मीद है.