झारखंड में बाल तस्करी के बावजूद बाल कल्याण समितियां हैं बदहाल, बाल संरक्षण आयोग भी प्रभावहीन

झारखंड से बाल तस्करी की घटनाएं अक्सर सामने आती हैं. बावजूद इसके यहां उनके अधिकारों के लिए गठित की गयी विभिन्न प्रकार की सरकारी निकायें बदहाल हैं. पढिए यह विशेष आलेख :

रांची : अगर देश में चुनाव आयोग न हो, तो क्या आप चौंक जाएंगे? इस संवैधानिक निकाय के नहीं होने से लोकतंत्र खतरे में दिखना स्वाभाविक है। चुनाव आयोग ही नहीं, तो हमारे जनप्रतिनिधि कैसे चुने जाएंगे?
लेकिन लोकतंत्र किसके वास्ते? नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की पुस्तिका “बच्चे और लोकतंत्र” पढ़ने से बच्चों के प्रति हमारी सोच को एक नई दिशा देती है।
दरअसल तमाम राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के पश्चात बच्चों का हित एवं उनके हक़ के लिए देश एवं राज्यों में क़ानून निर्माताओं ने कई कानून बनाये हैं, ताकि बच्चों का शोषण न हो एवं उन्हें समुचित न्याय मिलता रहे.
उन्हीं में से एक कानून है – ‘बाल संरक्षण आयोग अधिनियम 2005.’ इसके तहत राष्ट्रीय स्तर पर हर राज्य में एक आयोग का गठन जरूरी है। इस अति महत्वपूर्ण वैधानिक निकाय का मुख्य कार्य है- बच्चों के हित से सम्बंधित तमाम कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन की मोनिटरिंग एवं सरकार को नीतिगत सुझाव देना.
सीधे तौर पर यूँ कहें कि यदि बाल मजदूरी, बाल विवाह, बाल दुर्व्यापार, बाल यौन शोषण जैसे गम्भीर अपराध कारित होते हैं और पीड़ित बच्चों को न्याय मिलने की राह में किसी भी स्तर पर कठिनाई आती है तो यह आयोग हस्तक्षेप कर सकता है. निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून का उल्लंघन होने के मामलों पर भी यह आयोग संज्ञान ले सकता है. इसे व्यापक अधिकार प्राप्त हैं.
झारखण्ड में राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसे महत्वपूर्ण निकाय में अप्रैल 2019 से ही अध्यक्ष एवं सभी सदस्यों के पद रिक्त पड़े हैं. शायद इसलिए कि इस आयोग को उतनी गंभीरता से नहीं देखा जा रहा, जितना चुनाव आयोग या अन्य आयोग होते हैं? क्या इसकी प्रासंगिकता नहीं रही?
एक अन्य महत्वपूर्ण कानून है- ‘किशोर न्याय ( बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम,2015’ जिसे जेजे एक्ट के रूप में जाना जाता है.
मान लीजिये कोई बच्चा बाल मजदूरी से मुक्त कराया जाता है या बाल विवाह रोक दी जाती है या बाल दुर्व्यापार का शिकार कोई बच्चा है या कोई बच्चा दुष्कर्म का शिकार है या अन्य किसी कठिन परिस्थिति में यदि कोई बच्चा पाया जाता है तो ऐसी स्थिति में क्या किया जाएगा? ऐसे में, जेजे एक्ट के तहत एक वैधानिक निकाय है- एक अध्यक्ष सहित पांच सदस्यीय बाल कल्याण समिति. सिर्फ और सिर्फ यह समिति ही इन पीड़ित बच्चों के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेने हेतु एक सक्षम वैधानिक निकाय है और जिसे उन बच्चों का समुचित पुनर्वास के लिए हर जरूरी निर्देश देने का अधिकार प्राप्त है.
झारखण्ड में इस मामले पर भी निराशा ही हाथ लगती है.
ध्यान देने की बात है कि जेजे एक्ट के अनुसार, बाल कल्याण समिति द्वारा बच्चों के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेने हेतु बैठक का कोरम पूरा होना आवश्यक है, उक्त बैठक में न्यूनतम तीन सदस्यों का होना अनिवार्य है.
इस दृष्टि से यदि देखें तो झारखण्ड में 24 जिले हैं और कहने को तो प्रत्येक जिले में एक बाल कल्याण समिति का गठन किया गया है. लेकिन, लगभग सभी जिलों में बच्चों के मामलों पर अंतिम निर्णय लेने हेतु बैठक का कोरम पूरा नहीं हो सकता.
चौंकाने वाली बात है कि किसी-किसी जिले में तो एक भी सदस्य नहीं हैं, जैसे कि हजारीबाग और चतरा. कुछ में तो केवल एक ही और किसी में दो सदस्य. जैसे पाकुड़, बोकारो, गिरिडीह, लोहरदगा आदि जिलों में एक-एक ही सदस्य हैं, वहीँ रांची, सरायकेला, देवघर, दुमका, पश्चिमी सिंहभूम, गढ़वा, पलामू,लातेहार में दो-दो सदस्य कार्यरत हैं. ऐसे में बच्चों के मामले में, विशेष तौर पर उनके समुचित पुनर्वास हेतु निर्णय कैसे होगा? इसलिए समिति की बैठक में कोरम का अभाव एक गम्भीर चिंतन का विषय है.
बचपन बचाओ आन्दोलन द्वारा झारखण्ड उच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के क्रम में ही झारखण्ड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग का गठन किया गया था, जो अपने लिए पिछले साल अप्रैल माह से ही अध्यक्ष एवं सदस्यों की बाट जोह रहा है. फरवरी 2020 में उसी याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय द्वारा सम्बन्धित विभाग से मार्च 2020 में बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष/सदस्यों का समाप्त हो रहे कार्यकाल के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों की नियुक्ति प्रक्रिया हेतु विभागीय तैयारी सम्बन्धी रिपोर्ट तलब किया गया था.
यह भी पूछा गया था कि झारखण्ड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग में अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति कि स्थिति क्या है? लेकिन, शायद विभाग को न्यायालय के हस्तक्षेप का भी डर नहीं! तभी तो गत 5 जून को महिला, बाल विकास एवं सामाजिक सुरक्षा विभाग द्वारा एक अधिसूचना जारी होती है कि विभिन्न जिलों की बाल कल्याण समितियों में 19 मार्च 2020 को रिक्त हुए 42 अध्यक्ष/सदस्यों के कार्यकाल में अवधि विस्तार 19 जून 2020 तक दिया जाता है,जो अब फिर से रिक्त हो गए. हालांकि, कुल रिक्तियां इससे भी कहीं ज्यादा हैं. नियम है कि रिक्तियां होने के तीन महीने पहले से ही इस दिशा में तैयारी की जानी चाहिए थी, तो क्यों नहीं हो सका? इस हद दर्जे की लापरवाही का जिम्मेवार कौन है?
सवाल है कि अभी कोई सामान्य समय नहीं कोविड संकट काल से हम गुजर रहे हैं और बच्चों के मामले में महत्वपूर्ण वैधानिक निकाय – झारखण्ड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग एवं बाल कल्याण समितियों पर ही संकट के बादल छाये हैं तो झारखण्ड में संरक्षण एवं देखभाल के जरूरतमंद बच्चों के हित में कौन फैसला लेगा? प्रवासी श्रमिकों के मामले में हेमंत सरकार की संवेदनशीलता देख, उम्मीद तो बनती है कि बच्चों के अधिकार की हिमायत करते हुए भी मौजूदा सरकार द्वारा हर आवश्यक निर्देश दिए जाएंगे. आखिर ये बच्चे अपने सवाल किससे पूछेंगे?
(लेखक बाल अधिकार कार्यकर्ता हैं और बचपन बचाओ आंदोलन से जुड़े हैं.)