सावन, सेज, साजन तब सावन बने मनभावन

सावन, सेज, साजन तब सावन बने मनभावन। अब जब इनका संयोग ना बने तो फिर उत्पन्न होता है विरह। और जब विरह उत्पन्न होता है तो कंठ से फूटता है “हरि- हरि प्रीतम गए परदेश जिया नाही लागे रे ननदि”।

आज़ादी के समय आंदोलन का दौर था। शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था। एक नौजवान अपने प्रियतम से मिलने जा रहा था। एक अंग्रेज़ सिपाही ने गोली चला दी। मारा गया। मगर वह आज भी कजरी में ज़िंदा है- ‘यहीं ठइयाँ मोतिया हेराय गइले रामा हो…।’ मॉरीशस और सूरीनाम से लेकर जावा- सुमात्रा तक जो लोग आज हिंदी का परचम लहरा रहे हैं, कभी उनके पूर्वज एग्रीमेंट पर यानी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में वहाँ गए थे।
इन लोगों को ले जाने के लिए मिर्ज़ापुर सेंटर बनाया गया था। वहाँ से हवाई जहाज़ के ज़रिए इन्हें रंगून पहुँचाया जाता था। जहाँ पानी के जहाज़ से ये विदेश भेज दिए जाते थे। बनारस की कचौड़ी गली में रहने वाली धनिया का पति जब इस अभियान पर रवाना हुआ तो कजरी बनी। उसकी व्यथा-कथा को सहेजने वाली कजरी आपने ज़रूर सुनी होगी-
मिर्ज़ापुर कइले गुलज़ार हो… कचौड़ी गली सून कइले बलमू
यही मिर्ज़ापुरवा से चलेल जहजिया
पिया चलि गइले रंगून हो… कचौड़ी गली सून कइले बलमू
प्रिय के वियोग में धनिया पान के पत्ता से भी पतली हो गई है। शरीर ऐसे छीज रहा है जैसे कटोरी में रखी हुई नमक की डली गल जाती है-
पनवा से पातर भइल तोर धनिया
तिरिया गलेल जैसे नोन हो… कचौड़ी गली सून कइले बलमू।
मतवाले सावन में विरहिन का दिल कांपता ही नहीं, झूमता भी है। हृदय में तड़प पैदा होने, हूक उठने की भी खास वजह होती है। जैसे पूरी प्रकृति निखर जाती है, उसी तरह स्त्री का मन भी मिलन की शीतलता के लिए व्याकुल हो उठता है। यही सावन का सौंदर्य और कजरी की धुनों की मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में है वह कहीं और नहीं।
–मनीषा श्रीवास्तव, लोकगायिका