शिवसेना की अगर कांग्रेस से दोस्ती होगी तो देश की राजनीति में क्या बदलेगा?

शिवसेना की अगर कांग्रेस से दोस्ती होगी तो देश की राजनीति में क्या बदलेगा?

 

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शिवसेना ने दूसरी बार भाजपा से नाता तोड़ा है. इससे पहले उसने पिछले विधानसभा चुनाव के समय भाजपा से अलग चुनाव लड़ा था. बाद में बड़ी पार्टी के रूप में उभरी भाजपा ने छोटे दलों एवं निर्दलियों के समर्थन से अकेले सरकार का गठन किया था. बाद में शिवसेना भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल हुई. इस बार शिवसेना का अलगाव पिछले बार से अधिक अहम है, क्योंकि तब अलग-अलग चुनाव लड़ कर दोनों दलों ने फायदा ही उठाया था. इस बार वे साथ लड़े और बहुमत पाया, लेकिन मुख्यमंत्री पद के ढाई-ढाई साल के लिए बंटवारे के सवाल पर अलग हो गए.

 

288 विधानसभा सीट वाले महाराष्ट्र में इस बार भाजपा को 105 एवं शिवसेना को 56 सीटें मिली हैं. शिवसेना यह कह रही है कि भाजपा ने उससे चुनाव के पहले बराबर-बराबर कार्यकाल के लिए सीएम पद के बंटवारे का वादा किया था, जबकि भाजपा कह रही है कि ऐसा कोई वादा नहीं किया था और हम बड़ी पार्टी हैं, मुख्यमंत्री सहज रूप से हमारा ही होना चाहिए.

 

भाजपा कल ही गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी के सरकार गठन के न्यौते को ठुकरा चुकी है. उसके बाद गवर्नर ने दूसरी बड़ी पार्टी शिवसेना को इसका न्यौता दिया. शिवसेना इसके लिए तैयार है, पर उसे कांग्रेस एवं एनसीपी के समर्थन की दरकार है.

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कांग्रेस-एनसीपी के लिए यह जटिल सवाल है. एनसीपी चूंकि क्षेत्रीय राजनीति करती है, इसलिए वह इस चीज को भविष्य में मैनेज कर लेगी, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति करने वाली कांग्रेस के लिए यह यक्ष प्रश्न की तरह है. शरद पवार ने बड़ी चतुराई से समर्थन देने की पहले जिम्मेवारी लेने का गेंद कांग्रेस के पाले कर दिया है.

अब कांग्रेस उहापोह में है. उसकी कार्यसमिति की आज सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एक दौर की बैठक हो चुकी है. कांग्रेस हाइकमान अब महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रमुख नेताओं से मिलेंगी और उसके बाद एक और दौर की बैठक होगी, जिसमें आखिरी फैसला लिया जाएगा. पर, क्या यह फैसला इतनी सहजता से लिया जा सकेगा, जब संजय निरूपम जैसे नेता यह पूछ रहे हैं कि क्या तब अगला चुनाव भी हम साथ मिल कर लड़ेंगे.

यह फैसला इतना कठिन क्यों है?

 

कांग्रेस और शिवसेना राजनीति के उत्तर-दक्षिण ध्रुव की तरह हैं. पर, राजनीति में दो ध्रुवों का मिल जाना क्षणिक आश्चर्य की ही बात है, भले इसका असर दूरगामी हो.

शिवसेना नेता संजय राउत ने बीते दिनों कांग्रेस से संबंध अनुकूल बनाने के लिए कहा था कि वह महाराष्ट्र की दुश्मन नहीं है, हां अलग-अलग दलों में मतभेद जरूर होते हैं. जबकि शिवसेना का इतिहास कांग्रेस एवं उसके प्रथम परिवार पर तीखे कटाक्षों का रहा है.

एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट के बाद ही कांग्रेस स्वयं को किसी न किसी रूप साॅफ्ट हिंदुत्ववादी दिखाने का प्रयास करती रही है. कुछ साल पूर्व एंटोनी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कांग्रेस का अल्पसंख्यकों पर अति जोर के कारण उसकी छवि बहुसंख्यकों में प्रभावित हुई है, जो हार की एक प्रमुख वजह बनी.

 

राहुल गांधी की गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक व मध्यप्रदेश के मंदिरों में चुनाव के दौरान दर्शन पूजन के लिए जाना और रणदीप सुरजेवाला द्वारा उन्हें जनेउधारी हिंदू बताना एवं उनके गोत्र का उल्लेख करना बस यूं ही नहीं था. प्रियंका गांधी वाड्रा भी यूपी चुनाव के दौरान भाई की राह पर ही चलीं.

 

शिवसेना हिंदुत्ववादी तो है, लेकिन वह उद्धव ठाकरे के लिए नेतृत्व में सर्वस्वीकार्य बनने का प्रयास कर रही है. पर, लोगों के दिल-दिमाग में बाल ठाकरे की शिवसेना की ही छवि कायम है.

 

शिवसेना के साथ कांग्रेस के जाने से दोनों दलों की छवि को नफा-नुकसान दोनों का खतरा है. कांग्रेस हिंदुत्व के अधिक करीब हो सकती है और उसे अल्पसंख्यकों को जवाब भी देना पड़ सकता है. वहीं, शिवसेना से तीखे कांग्रेस विरोध एवं हिंदुत्ववाद पर सवाल पूछे जा सकते हैं कि अब ऐसा क्यों, तो साथ ही उसकी छवि और मध्यमार्गी बनने का प्रयास करते दल की भी बन सकती है.

 

एनसीपी की तरह शिवसेना भी क्षेत्रीय राजनीति करती है, इसलिए वह चीजों को मैनेज कर सकती है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह मुश्किल फैसला है, जिस पर वह बार-बार विचार कर रही है.

 

देश की राजनीति पर क्या कुछ असर होगा भी?

भाजपा के बढते आधिपत्य से बेचैन सहयोगी की सबसे प्रबल छवि शिवसेना में ही दिखती है. शिवसेना के साथ एक दिक्कत यहां यह भी है कि दोनों का कोर विषय हिंदुत्व ही है. समाजवादी दलों के साथ एक यह सहज स्थिति होती है कि वह भाजपा से अलग होकर सामाजिक न्याय का नारा फिर से बुलंद करने लगें. भाजपा के कई सहयोगी दल सिमटते गये हैं. शिवसेना खुद महाराष्ट्र में पहले भाजपा से बड़ी पार्टी हुआ करती थी. ऐसे में शिवसेना अपने अस्तित्व को लेकर भी सचेत है. देश की राजनीति में कांग्रेस के लिए यह स्वीकारोक्ति बढाने वाली स्थिति है. ध्यान रहे कि समता पार्टी पहली कथित रूप से सेकुलर पार्टी थी, जो भाजपा से जुड़ी तो उसका उसने खूब लाभ उठाया. उसी तरह कांग्रेस पहली हिंदुत्ववादी पार्टी के खुद से जुड़ने का भी लाभ उठा सकती है.

Edited By: Samridh Jharkhand

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