झारखंड में बाल संरक्षण तंत्र की जमीनी हकीकत बच्चों की सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी तो नहीं है?

ब्रजेश कुमार मिश्र

झारखण्ड में विभिन्न जिलों में कुल 10 संप्रेक्षण गृह हैं और सरकार या गैर सरकारी संस्थानों द्वारा संचालित किए जा रहे 100 के करीब बाल गृह हैं. लेकिन, क्या इन बाल देखरेख संस्थानों में वैसे उपाय किए जा रहे हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो कि बच्चा सुरक्षित है, उसे कोई क्षति न पहुंचे एवं उसकी समुचित देखभाल और पुनर्वास होता रहे? इसे गहरी संवेदनशीलता के साथ सोचने की जरूरत है.
पलामू बालिका गृह से क्यों भाग रही हैं बच्चियां?
हाल में ही मेदिनीनगर स्थित एक बालिका गृह से एक बच्ची के भागने की खबर प्रकाशित हुई थी. बच्ची क्यों भाग गई? शायद उस बच्ची को खोज लिया गया है. लेकिन, इसकी गंभीरता के साथ जांच की जानी चाहिए कि आखिर वह बच्ची किस परिस्थिति में भागी? उक्त खबर में यह कहा गया था कि इस बाल गृह से किसी बच्ची के भागने की यह तीसरी घटना है.
आखिर कौन देगा गढ़वा की बच्चियों को संरक्षण?
पलामू जिला समाज कल्याण पदाधिकारी (डीएसडब्ल्यूओ) द्वारा 20 जुलाई 2020 को बाल कल्याण समिति पलामू के नाम जारी एक पत्र हैरान करने वाला है, जिसमें उन्होंने मेदिनीनगर में स्थित एक बालिका गृह से गढ़वा जिले के देखरेख एवं संरक्षण की आवश्यकता वाली सभी बालिकाओं को कहीं और स्थानांतरित करने के लिए लिखा गया है. गौरतलब है कि गढ़वा जिले में कोई भी बाल गृह संचालित नहीं है. ऐसे में, गढ़वा की बच्चियां कहाँ जायेंगी?
पलामू डीएसडब्ल्यूओ को क्यों भेजना पड़ा चौंकाने वाला एक पत्र?
डीएसडब्ल्यूओ के पत्र में उल्लेख है कि पलामू उपायुक्त के आदेश से जिला बाल संरक्षण इकाई पलामू द्वारा एक बालिका गृह का संचालन किया जा रहा है, जिसमें पलामू के अलावा गढ़वा जिले से भी पांच बच्चियों की देखभाल की जा रही है. उक्त पत्र में चौंकाने वाला तथ्य है कि आवंटन उपलब्ध नहीं होने के कारण बच्चियों को अब बालिका गृह में आवासित करने में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही हैं और इसलिए गढ़वा जिला की बच्चियों को कहीं और स्थानांतरित करने को कहा गया है. हालांकि, पलामू जिले की बच्चियों के लिए वैकल्पिक आवासन व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं है उस पत्र में.
कुछ और भी सवाल
1. समेकित बाल संरक्षण योजना (आईसीपीएस) में बाल देखरेख संस्थानों के लिए बाकायदा बजट का प्रावधान हैं, तो उस बालिका गृह को संचालित करने के लिए राशि का आवंटन क्यों नहीं हुआ, जिसका उल्लेख डीएसडब्ल्यूओ ने अपने पत्र में किया है?
2. उस पत्र के अनुसार, उक्त बालिका गृह पलामू उपायुक्त के आदेश से जिला बाल संरक्षण इकाई पलामू द्वारा संचालित है, तो क्या उसे जेजे एक्ट के तहत पंजीकृत नहीं किया गया है? जबकि, देखरेख एवं संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों को आवासित करने वाले सभी संस्थानों का जेजे एक्ट के अनुसार अनिवार्य रूप से पंजीकरण होना है,चाहे वह सरकार द्वारा संचालित हो या गैर सरकारी संगठनों द्वारा. ऐसा नहीं होने की स्थिति में इसके जिम्मेवार व्यक्ति/व्यक्तियों को दंड या जुर्माना अथवा दोनों हो सकता है.
3. बाल गृहों में देखभाल के न्यूनतम आवश्यक मापदंड की उपलब्धता का निरीक्षण करने के लिए राज्य एवं जिला स्तरों पर निरीक्षण समितियों के गठन का भी वैधानिक प्रावधान है. देखने लायक होगा कि इस बाल गृह से सम्बंधित निरीक्षण प्रतिवेदनों में उन समितियों द्वारा क्या अनुशंसाएं की जाती रही हैं?
4. जेजे एक्ट को लागू करने के लिए झारखण्ड जेजे रूल्स को माना जाय, तो जिला बाल संरक्षण पदाधिकारी (डीसीपीओ) ही जिले में नोडल पदाधिकारी होते हैं. ऐसे में, इस एक्ट के तहत आच्छादित बच्चों के मामलों में जिला समाज कल्याण पदाधिकारी (डीएसडब्ल्यूओ) द्वारा यह पत्र जारी किया जाना कितना उचित है?
5. अधिकांश जिलों में बाल विकास परियोजना पदाधिकारियों (प्रखंड स्तरीय) को डीएसडब्ल्यूओ का प्रभार दिया गया है, जो काम चलाऊ व्यवस्था है. चलिए, यदि वे नियंत्री पदाधिकारी के बतौर कार्य कर रहे हैं तो क्या उनका जेजे एक्ट पर कभी प्रशिक्षण कराया गया है?
सरकार द्वारा किए जा रहे तमाम अच्छे प्रयासों के बीच, बाल हित में इस ओर भी ध्यान आकृष्ट कराया जाना चाहिए :
जेजे एक्ट के तहत निर्धारित सभी वैधानिक निकायों एवं बाल संरक्षण तंत्र का एक स्वतंत्र मूल्यांकन. साथ ही साथ, बाल देखरेख संस्थानों का सामाजिक अंकेक्षण कराया जाए, ताकि आवश्यक नैदानिक कदम उठाये जा सकें.
यदि समेकित बाल संरक्षण योजना(आईसीपीएस) में निर्धारित बाल संरक्षण तंत्र को समेकित बाल विकास परियोजना(आईसीडीएस) के अधीन बाल संरक्षण सेवाएँ घटक के रूप में देखा जा रहा है, तो जेजे रूल्स में भी तत्संबंधी संशोधन हो. क्योंकि, मौजूदा वैधानिक नियम के अनुसार तो नोडल पदाधिकारी डीसीपीओ ही हैं या फिर जेजे एक्ट में प्रावधानित डीसीपीओ की शक्ति को डीएसडब्ल्यूओ में ही निहित कर दिया जाय,अन्यथा यह विरोधाभास मौजूद ही रहेगा.
अंत में, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की यह बात कहना उचित प्रतीत होता है कि “किशोर न्याय कानून की सफलता का आकलन बाल देख रेख संस्थानों में भेजे गए बच्चों की संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि इस आधार पर होना चाहिए कि इसने कितने बच्चों का सुधार और सफल पुनर्वास संभव कराया.”
(लेखक नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाTSश सत्यार्थी द्वारा स्थापित संस्था बचपन बचाओ आंदोलन का झारखण्ड में कार्यकर्ता हैं.)