Opinion: ममता का एनआरसी विरोध, मुस्लिम वोटरों को एकजुट रखने की कोशिश
सीमावर्ती जिलों में बांग्लादेशी शरणार्थियों की बड़ी आबादी
एसआईआर पर ममता बनर्जी का विरोध केवल संवैधानिक या प्रशासनिक नहीं, बल्कि बंगाल की पहचान, नागरिकता और वोट बैंक की राजनीति से जुड़ा हुआ है। संविधान उन्हें केंद्र की योजना को रोकने का अधिकार नहीं देता, लेकिन राजनीतिक रूप से यह विरोध उनके लिए एक प्रतीकात्मक शक्ति प्रदर्शन बन गया है।
पश्चिम बंगाल की राजनीति एक बार फिर केंद्र और राज्य सरकार के टकराव का मैदान बन गई है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वह राज्य में एसआईआर (समग्र नागरिक रजिस्टर) लागू नहीं होने देंगी। उन्होंने आरोप लगाया कि यह केंद्र की ओर से नागरिकों के अधिकारों और निजता में दखल का प्रयास है। सवाल यह है कि क्या संविधान उन्हें यह अधिकार देता है कि वह केंद्र की किसी योजना को अपने राज्य में लागू होने से रोक सकें, और दूसरा, आखिर ममता बनर्जी को एसआईआर से इतना डर क्यों है संविधान के अनुच्छेदों के अनुसार, नागरिकता, जनगणना और राष्ट्रीय पहचान से जुड़े विषय केंद्र सूची में आते हैं। यानी इन पर फैसला करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के पास है। किसी राज्य सरकार की इस पर न तो नीति बनाने की शक्ति होती है और न ही इसे रोकने की संवैधानिक अनुमति। इस लिहाज से अगर केंद्र सरकार एसआईआर यानी देश के सभी नागरिकों का एक समग्र रजिस्टर तैयार करने का निर्णय लेती है, तो राज्य सरकार संवैधानिक रूप से इसका विरोध तो कर सकती है, लेकिन उसे लागू करने से रोकने का अधिकार नहीं रखती। हालांकि व्यावहारिक रूप से राज्य सरकारें प्रशासनिक सहयोग देने या न देने के जरिए प्रक्रिया को धीमा या मुश्किल ज़रूर बना सकती हैं। जैसे पहले एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर कई राज्यों ने डेटा एकत्र करने में केंद्र को सहयोग नहीं दिया था।

ममता बनर्जी के विरोध की एक और वजह यह भी है कि वह केंद्र की किसी भी ऐसी पहल का विरोध करना चाहती हैं, जो भाजपा के एजेंडे से मेल खाती हो। भाजपा ने बंगाल में नागरिकता संशोधन कानून (एनआरसी) और एनआरसी के मुद्दे को बार-बार उठाया है, ताकि बंगाल के हिंदू शरणार्थियों, खासकर मतुआ समुदाय को अपने साथ जोड़ा जा सके। इसके जवाब में ममता बनर्जी ने खुद को ‘लोगों की रक्षक’ और ‘संविधान की प्रहरी’ के रूप में पेश किया है। वह कहती हैं कि “किसी को भी अपनी नागरिकता साबित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी जब तक मैं हूं।” यह बयान उनके समर्थकों के बीच राजनीतिक भरोसे का प्रतीक बन गया है, लेकिन कानूनी दृष्टि से इसका कोई ठोस आधार नहीं है।एसआईआर यदि लागू होता है तो यह केवल राज्य प्रशासन के सहारे ही संभव है जैसे जनगणना अधिकारी, स्थानीय स्तर पर डेटा संकलन, सत्यापन आदि। यदि राज्य सरकार इसमें सहयोग नहीं करती, तो इसकी गति धीमी हो सकती है। लेकिन केंद्र चाहे तो अपने अधिकारियों के माध्यम से भी प्रक्रिया आगे बढ़ा सकता है। यही वह बिंदु है, जहां राजनीतिक विरोध संवैधानिक मर्यादाओं से टकराता है। ममता बनर्जी के विरोध के बावजूद, केंद्र सरकार यदि इसे राष्ट्रीय कार्यक्रम घोषित करती है, तो राज्य को पूरी तरह इससे अलग रखना कठिन होगा।
सवाल यह है कि क्या एसआईआर वास्तव में “घुसपैठियों के लिए खतरे की घंटी” बन सकता है। सैद्धांतिक रूप से हां, क्योंकि अगर नागरिकता की पुष्टि के लिए आधिकारिक दस्तावेजों की मांग की जाती है, तो वे लोग जो वैध दस्तावेज नहीं दिखा पाएंगे, वे जांच के घेरे में आ सकते हैं। बंगाल में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो दशकों से यहां रह रहे हैं, लेकिन उनके पास नागरिकता से जुड़े दस्तावेज अधूरे हैं। इनमें न केवल बांग्लादेश से आए लोग शामिल हैं, बल्कि गरीबी, अशिक्षा या विस्थापन के कारण पहचान दस्तावेजों से वंचित भारतीय भी हैं। इस स्थिति में एसआईआर लागू होने पर कई निर्दोष लोग भी संदेह के घेरे में आ सकते हैं। इस आशंका को ममता बनर्जी ने राज
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