कोरोना संकट पर चिंतक गोविंदाचार्य के विचार, अणु बम पर भारी पड़ सकता है जीवाणु, और जानें

कोरोना संकट पर चिंतक गोविंदाचार्य के विचार, अणु बम पर भारी पड़ सकता है जीवाणु, और जानें

नयी दिल्ली : भाजपा के पूर्व नेता व चिंतक गोविंदाचार्य ने कोरोना संकट पर समग्रता से अपना विचार प्रकट किया है. उनके विचार संपूर्ण राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में है जो काफी अहम है. उन्होंने अपने चिंतन के उपरांत कहा है कि जीवन मूल्यवान है, धन दौलत व ऐश्वर्य नहीं. वे अपने चिंतन के आधार पर इस नतीजे पर भी पहुंचे हैं कि मानव केंद्रित नहीं, प्रकृति केंद्रित समग्र विकास ही आगे की दिशा है.

कृषि, गोपालन व वाणिज्य ही स्वावलंबी विकेंद्रित व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है. देश कोरोना संकट के दौर में है, देशवासियों ने कष्ट सहन किया है. धीरज का परिचय दिया है. समाज ने सरकार का साथ दिया है, इसके लिए सरकार, समाज दोनों बधाई के पात्र हैं. इस संकट में अर्थव्यवस्था भी घायल हुई है. वापस पटरी पर लाने मे कितना समय लगेगा यह देखना है.

चिंतन के आधार पर गोविंदाचार्य ने कहा है कि कोरोना संकट से गुजरने में समाज को कुछ बातें फिर याद आयी हैं, जो इस प्रकार हैं :

धन दौलत, सुविधा और ऐश्वर्य से अधिक महत्वपूर्ण जीवन है.

एक विषाणु परमाणु बम पर भारी पड़ सकता है.
मानव केंद्रित विकास की संकल्पना और बाजारवाद अनिष्टकारी है.
भारत के नजरिये से विश्व एक बाजार नहीं है, वह एक परिवार है.
विकास को मानव केंद्रित से उठकर प्रकृति केंद्रित होना है.
जमीन, जंगल, जानवर के अनुकूल जीवन और जीविका हितकारी है.
पर्यावरण, पारिस्थितिकी अपने को सुधार सकती है, बशर्ते कि मनुष्य गड़बड़ न करे.

इन बातों को ध्यान में रखकर भारतीय समाज जीवन की रचना हुई है. परिवार की चेतना विस्तार ही ग्राम, क्षेत्र, प्रदेश, देश-दुनिया, उसके परे भी सृष्टि का आधार चेतना का विस्तार है. उस पर परस्परानुकूल जीवन जीने का विज्ञान गठित हुआ. तदनुसार भारत शर्तों का नहीं संबंधों का समाज बना. सभी में एक और एक में सभी का दर्शन प्रस्तुत हुआ.

भारतीय जीवन व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार बना है: कृषि, गोपालन, वाणिज्य का समेकन. उसके बाद राज्य व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, तकनीकी, प्रबंधन विधि आदि उत्कांत हुई.

भारतीय समाज व्यवस्था संचालन मे वाणिज्य की विशेष भूमिका रही है. भारतीय समाज, शर्तों पर नहीं संबंधों पर आधारित समाज है. केवल मनुष्य के बीच नहीं पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष, वनस्पति से भारतीय मन संबंध जोड़ता है. भगवान को भी बाल रूप में दर्शन कर लेता है. समदर्शी भाव का भारतीय चित्त पर संस्कार है. इन संबंधों का आधार है: स्वतिमैक्य एवं व्यापक अर्थों में यह धर्म की अवधारणा है. इसके कारण व्यापार पर कर्त्तव्य, दायित्व पक्ष निर्णायक रूप से हावी रहा है. येन केन प्राकरेण सत्ता या धन प्राप्ति को समाज में आज भी अच्छा नहीं माना जाता. भारत के लोक मूल स्वभाव में ये विधि निषेध गहराई से अंकित है.

इस परंपरा पर हथियारवाद, सरकारवाद, बाजारवाद ने बहुत चोट पहुंचायी है. पूंजी के प्राबल्य ने संवेदनशीलता, नैतिकता पर गंभीर चोट पहुंचाई है. बाजारवाद के विचार से तो पूंजी ही ब्रह्म है, मुनाफ़ा ही मूल्य है, जानवराना उपभोग ही मोक्ष है.

पिछले लगभग 40 वर्षों से बाजारवाद का हमला तेज हुआ. संवेदनशीलता, नैतिकता को चकनाचूर करने की कोशिश हुई. पूतना के रूप में विश्व व्यापार संगठन के नीति नियमों को, पेटेंट क़ानून को, सामाजिक एवं परिस्थिति के संकेतकों का उपयोग किया गया. तकनीकी के द्वारा मानवीय संबंधों की संवेदनशीलता की उष्मा को बुझाया जा रहा है.

तकनीकी के विधि निषेध की बिना विचार किए स्वीकृति ने बेरोजगारी बढायी. पारिस्थितिकी पर्यावरण के लिए यह विनाशकारी हुआ. शहरी-ग्रामीण, अमीर-गरीब, पुरुष-स्त्री आदि अनेक स्तरों पर विषमता बढ़ी.

पोस्ट इंडस्ट्रियल बेस्ड सोसाइटी से नाॅलेज बेस्ड सोसाइटी बनने के चक्कर में हम तकनीकी का शिकार बन रहे हैं. विख्यात लेखक हेरारी ने भी पुस्तक Homosapianes में कहा कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, बायोटेक, जेनेटिक इंजीनियरिंग के बेतहाशा और अनियंत्रित वैश्वीकरण से मानव के ही खारिज होने का ख़तरा बढ़ गया है. आखिर वैश्विक व्यवस्था को संचालित रखने के लिए कुल कितने मनुष्यों की जरूरत पड़ेगी, सरीखे सवाल उठने लगे हैं.

मानवता और प्रकृति दोनों संकट में है. भारत के खुदरा व्यापार को बेमेल प्रतियोगिता मार रही है. सबसे ताजा चुनौती तो फेसबुक और जिओमार्ट से मिल रही है.

भारत मे खुदरा व्यापार में 5 से 10 करोड़ तक की संख्या लगी हुई है. खुदरा व्यापारियों ने मेट्रोमैन, वालमार्ट, मानसेंटो का आधा-अधूरा सामना किया है.

Edited By: Samridh Jharkhand

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