Opinion: यूपी में कांग्रेस बयान बहादुरों नहीं, रण बांकुरों को आगे करें

कांग्रेस के नेता पंचायत चुनाव को लेकर कर रहे बड़े-बड़े दावे

Opinion: यूपी में कांग्रेस बयान बहादुरों नहीं, रण बांकुरों को आगे करें
(सोर्से-patrika.com)

यूपी की सियासत में कांग्रेस के पतन की कहानी दो दशक पूर्व 2014 से शुरू हुई थी, जब लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया था. इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सिर्फ़ दो सीटों पर सिमट गई, और विधान परिषद में उसका कोई प्रतिनिधित्व नहीं बचा

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा के दिन कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं. यूपी में अपने उखड़ गये पॉव को फिर से जमाने के लिये पिछले करीब बीस वर्षो से कांग्रेस एड़ी चोटी का जोर लगा रही है, लेकिन उसके दिन बहुरने का नाम नहीं ले रहे हैं. इन बीस वर्षो में कई दिग्गज आये और चले गये लेकिन पार्टी में जान नही फूंक पाये, यहां तक की राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा गांधी भी पिटे हुए मोहरे साबित हुए, लेकिन गांधी परिवार से लेकर कांग्रेस के छोटे-बड़े तमाम नेता बड़ी-बड़ी बातें और दावे करने से पीछे नहीं हटते हैं. जबकि यूपी में कांग्रेस की स्थिति सपा-बसपा जैसे दलों की बी टीम बनकर रह गई है. अब फिर कांग्रेस के कुछ नेता यूपी की ‘बासी कढ़ी में उबाल’ लाने का सपना देख रहे हैं. कांग्रेस के नेता अब यूपी में अगले वर्ष होने वाले पंचायत चुनाव को लेकर बड़े-बड़े दावे करने में लगे हैं.

गौरतलब हो, 1952 से 1985 तक पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा और लोकसभा चुनावों में निर्विवाद प्रभुत्व बनाए रखा, जिसमें 1985 में उसने 425 में से 269 विधानसभा सीटें जीतकर अपनी बादशाहत साबित की थी. लेकिन बीते करीब साढ़े तीन दशक में कांग्रेस अर्श से फर्श पर आ चुकी है. भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उभार ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया है, लेकिन आज तक उसकी सियासत में कोई पैनापन नहीं दिखाई दे रहा है. हाल ही में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अजय राय ने सनसनीखेज ऐलान किया कि पार्टी 2026 के पंचायत चुनाव अकेले दम पर लड़ेगी. उन्होंने साफ किया कि 2027 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का फैसला केंद्रीय नेतृत्व पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद लेगा. अजय राय का दावा है कि अगर कार्यकर्ता मज़बूत हुए तो गठबंधन की कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी. इस बयान को कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और यूपी प्रभारी अविनाश पांडे ने प्रयागराज में दोहराया, जहाँ उन्होंने जोर देकर कहा कि पार्टी सभी 403 विधानसभा सीटों पर दमदार तरीके से खड़ी है. वैसे अक्सर ऐसी ही बातें राहुल गांधी भी करते रहते हैं. कांग्रेस की तरफ से पिछले कुछ महीनों से जिस तरह के बयान आ रहे हैं उसने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन में तनाव की अटकलों को हवा दी है. राजनीति के जानकार सवाल खड़ा कर रहे हैं कि क्या कांग्रेस वही भूल कर रही है, जो 2019 में बहुजन समाज पार्टी ने की थी, जब उसने गठबंधन तोड़कर अपनी ताकत को गलत आँका? यह रणनीति कांग्रेस के लिए कितनी कारगर होगी, और क्या यह आत्मविश्वास ज़मीनी हकीकत से मेल खाता है?

यूपी की सियासत में कांग्रेस के पतन की कहानी दो दशक पूर्व 2014 से शुरू हुई थी, जब लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया था. इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सिर्फ़ दो सीटों पर सिमट गई, और विधान परिषद में उसका कोई प्रतिनिधित्व नहीं बचा. फिर, 2024 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन ने कांग्रेस को नई उम्मीद दी. इस गठबंधन में कांग्रेस ने 17 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 6 सीटें जीतीं रायबरेली, अमेठी, सहारनपुर, सीतापुर, बाराबंकी, और प्रयागराज. समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर दी. लेकिन इन जीतों की ज़मीनी हकीकत उतनी सहज नहीं थी. क्योंकि प्रयागराज से कांग्रेस के टिकट पर जीते उज्ज्वल रमन सिंह समाजवादी पार्टी के नेता थे, जो कांग्रेस के टिकट पर लड़े. सहारनपुर से इमरान मसूद की जीत में भारतीय जनता पार्टी की रणनीतिक चूक का बड़ा हाथ था. रायबरेली और अमेठी को छोड़ दें तो कांग्रेस का संगठन यूपी में कमज़ोर है. 2022 में पार्टी का वोट शेयर सिर्फ़ 2.33 फीसदी था. फिर भी, अजय राय और अविनाश पांडे जैसे नेता दावा कर रहे हैं कि पार्टी को किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है. कई सवाल खड़े करता है.

पंचायत चुनाव यूपी की सियासत में हमेशा बड़ी कसौटी रहे हैं. 2026 में होने वाले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव, जिसमें 57,691 ग्राम प्रधान, 826 ब्लॉक प्रमुख, और 75 जिला पंचायत अध्यक्ष चुने जाएँगे, 2027 के विधानसभा चुनाव का माहौल तय करेंगे. ये चुनाव पार्टियों की ज़मीनी ताकत, कार्यकर्ताओं की मेहनत, और जनता के बीच प्रभाव को परखते हैं. अजय राय का पंचायत चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कांग्रेस की ताकत को आजमाने की रणनीति है. पार्टी का मानना है कि अगर कार्यकर्ता मज़बूत हुए तो वह 2027 में अकेले दम पर बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. अविनाश पांडे ने संगठन को बूथ स्तर तक मज़बूत करने की बात कही है. इसके लिए पार्टी ने पाँच स्तरीय संगठन की योजना बनाई है, जिसमें मंडल अध्यक्षों के रूप में युवा और ऊर्जावान नेताओं को मौका दिया जाएगा. जुलाई 2025 में जिला और शहर कार्यकारिणी के शपथ ग्रहण समारोह शुरू हुए, और 15 अगस्त तक सभी बूथ कमेटियों का गठन पूरा करने का लक्ष्य है. लेकिन यह रणनीति कितनी कारगर होगी? 2021 के पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने सिर्फ़ 76 जिला पंचायत वार्ड जीते थे, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने 720 और समाजवादी पार्टी ने 760 वार्ड हासिल किए थे. निर्दलीय उम्मीदवारों ने 1,114 वार्ड जीतकर सभी दलों को चौंकाया था.

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कांग्रेस की इस रणनीति के पीछे 2024 के लोकसभा चुनाव में मिली सफलता का आत्मविश्वास है. लेकिन यह आत्मविश्वास कितना टिकाऊ है? समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में कांग्रेस की जीत का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी के सामाजिक आधार खासकर पिछड़ा, दलित, और अल्पसंख्यक समुदायों पर टिका था. समाजवादी पार्टी ने 2024 में अपने पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फॉर्मूले से भारतीय जनता पार्टी को कड़ी टक्कर दी. लेकिन 2024 में नौ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में गठबंधन में तनाव की खबरें सामने आईं. कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन किया, लेकिन वह गाजियाबाद और फूलपुर समेत पाँच सीटों पर लड़ना चाहती थी. समाजवादी पार्टी के साथ बातचीत अंतिम दौर में थी, लेकिन सहमति नहीं बनी. अजय राय और अविनाश पांडे ने दिल्ली में केंद्रीय नेतृत्व से चर्चा की, लेकिन फैसला समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया. इन उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने सात सीटें जीतीं, जबकि समाजवादी पार्टी को दो सीटें मिलीं. इससे गठबंधन में खटास की बातें सामने आईं. समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने संकेत दिया कि अगर कांग्रेस ज़्यादा सीटों की माँग करेगी तो समाजवादी पार्टी अकेले लड़ सकती है.

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कांग्रेस की रणनीति में संगठन का पुनर्गठन और युवा नेतृत्व को बढ़ावा देना शामिल है. दिसंबर 2024 में पार्टी ने अपनी प्रदेश, जिला, शहर, और ब्लॉक कमेटियों को भंग कर दिया और 100 दिनों में नई कमेटियों के गठन का लक्ष्य रखा. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने इस प्रक्रिया की निगरानी की, जिसमें सलमान खुर्शीद, राज बब्बर, और पीएल पुनिया जैसे वरिष्ठ नेताओं को शामिल किया गया. पार्टी ने छह जोन अवध, पूर्वी यूपी, पश्चिमी यूपी, प्रयागराज, ब्रज, और बुंदेलखंड में संगठन को मज़बूत करने की योजना बनाई है. मेरठ, अलीगढ़, झांसी, अयोध्या, और लखनऊ में कार्यकर्ता सम्मेलन आयोजित किए गए, जिनका खर्च कार्यकर्ताओं ने खुद उठाया. यह दिखाता है कि कांग्रेस में जोश है, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि रायबरेली और अमेठी के बाहर उसका प्रभाव सीमित है.

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यूपी की सियासत में गठबंधन का इतिहास सबक से भरा है. 2019 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन किया था. मोदी लहर के बावजूद दोनों ने 15 सीटें जीतीं बहुजन समाज पार्टी को 10 और समाजवादी पार्टी को 5. लेकिन इस जीत के बाद बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन तोड़ दिया. 2022 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सिर्फ़ एक सीट जीत पाई, और 2024 में उसका खाता भी नहीं खुला. बहुजन समाज पार्टी की इस गलती का कारण उसका अतिआत्मविश्वास और संगठन की कमज़ोरी थी. यह कांग्रेस के लिए चेतावनी है. 2024 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन ने कांग्रेस को 6 सीटें दिलाईं, लेकिन अतिआत्मविश्वास उसे भारी पड़ सकता है. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने हाल ही में कहा कि गठबंधन बरकरार है और दोनों दल 2027 में साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. लेकिन समाजवादी पार्टी के सूत्रों ने संकेत दिया कि अगर कांग्रेस ज़्यादा सीटों की माँग करेगी तो समाजवादी पार्टी अकेले लड़ने का विकल्प चुन सकती है.

कांग्रेस की रणनीति में दलित मतदाताओं को लुभाना भी शामिल है. 2024 में दलित वोटरों का एक हिस्सा भारतीय जनता पार्टी से हटकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की ओर गया. कांग्रेस ने दलित सम्मेलनों और चौपालों का आयोजन शुरू किया है, और राहुल गांधी की संविधान बचाने की मुहिम ने दलित समुदाय में विश्वास जगाया. लेकिन समाजवादी पार्टी भी अपने पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फॉर्मूले के तहत इन समुदायों को साध रही है. समाजवादी पार्टी ने ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों का आयोजन शुरू किया है, जिसका मकसद जातिगत गणना और सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाना है. दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी ने 2021 के पंचायत चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों को साधकर 67 जिला पंचायत अध्यक्ष सीटें जीती थीं और 2026 में भी यही रणनीति अपनाने की तैयारी में है.

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती संगठन को मज़बूत करना है. अजय राय और अविनाश पांडे के बयान भले ही हौसला बढ़ाने वाले हों, लेकिन ज़मीनी स्तर पर मेहनत की जरूरत है. पंचायत चुनाव में अकेले लड़ने का फैसला एक जोखिम भरा दाँव है. अगर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती है तो यह 2027 के लिए उसका आत्मविश्वास बढ़ाएगा. लेकिन अगर नतीजे खराब रहे तो गठबंधन के बिना उसकी राह मुश्किल हो सकती है. समाजवादी पार्टी भी 2027 में सत्ता में वापसी की आस में है. भारतीय जनता पार्टी, जिसने 2022 में अपने गठबंधन के साथ 273 सीटें जीती थीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 2027 में 80 फीसदी सीटें जीतने का दावा कर रही है. 2027 का विधानसभा चुनाव यूपी की सियासत में टर्निंग पॉइंट हो सकता है. कांग्रेस के लिए यह मौका है कि वह बड़ी बड़ी बातें करने की बजाये अपनी खोई ज़मीन वापस हासिल करे. इसके लिए उसे बयान बहादुरों से बचना होगा, कार्यकर्ताओं में जोश भरना होगा, संगठन को बूथ स्तर तक मज़बूत करना होगा, और गठबंधन की रणनीति पर सावधानी से विचार करना होगा. विशेष रूप से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को यूपी को लेकर ठोस रणनीति बनानी होगी और यूपी में ज्यादा समय भी देना होगा.

संजय सक्सेना,लखनऊ
  वरिष्ठ पत्रकार

Edited By: Sujit Sinha
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सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।

'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।

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