Opinion: यूपी में ‘माइंड गेम’ के सहारे सत्ता हासिल करने का ‘खेला’

Opinion: यूपी में ‘माइंड गेम’ के सहारे सत्ता हासिल करने का ‘खेला’

लखनऊ: उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव जीतने और विरोधियों पर बढ़त बनाने के लिए तमाम राजनैतिक दलों ने ‘माइंड गेम’ शुरू कर दिया है,: ताकि जनता के बीच उनकी पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ ऊपर और विरोधी दलों का नीचे की ओर खिसकता दिखाई दे। इसके लिए तमाम ‘टोने-टुटकों’ का सहारा लिया जा रहा है। दूसरों की खामियां तो अपनी खूबिया बढ़-चढ़कर गिनाई जा रही हैं।
काले को सफेद और सफेद को काला दिखाया जा रहा है। रूठों को मनाया तो तमाम दलों के ठुकराए गए या फिर हासिए पर पड़े नेताओं को गले लगाया जा रहा है। सियासत के बाजार के पुराने चलन के अनुसार बड़ी मछलियां,छोटी मछलियों को खा जाती है की तर्ज कई बड़े दल, छोटे दलों का अपनी पार्टी में विलय की कोशिशों को भी धार देने में लगे हैं।  सत्ता हासिल करने के लिए चल रहे मांइड गेम में किसी भी दल का नेतत्व पीछे नहीं है।
सब अपनी ‘औकात’ के अनुसार गेम प्लान कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ,समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कुछ हद तक कांग्रेस एवं राष्टीय लोकदल भी इस गेम के बड़े खिलाड़ी है, जबकि छोटे दलों में अपना दल एस की अनुप्रिया पटेल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर, निषाद पार्टी के संजय निषाद, प्रगतिशाील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव, ओवैसी की ऑल इंडिया मजजिलस-ए-इत्ताहादुल मुस्लिमीन, भीम आर्मी के चन्द्रशेखर ‘रावण’ आदि दलों के नेता भी इस चक्कर में हैं कि किसी तरह से उनकी पार्टी का किसी बड़े दल के साथ गठबंधन हो जाए ताकि वह अपनी सियासी नैया को किनारे लगाने में सफल हो जाएं।
इन छोटे-छोटे दलों की बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं इस लिए भी ‘हिलोरे’ मार रही हैं क्योंकि इन्हें लगता है कि अबकी से विधान सभा चुनाव में बडे़ सियासी दलों के बीच किसी तरह का कोई गठबंधन होने की संभावना नहीं होगा, जिस वजह से छोटे दलों की ‘लाॅटरी’ खुल सकती है। बहरहाल, सियासत के इस मांइड गेम में कभी कोई दल भारी पड़ता नजर आता है तो कभी कोई दूसरा दल।
तमाम दलों के आकाओं द्वारा किसी भी दूसरी पार्टी के नेता को अपने साथ लाने क दौरान उस नेता का ऐसा औरा दिखाया जाता है, जैसे पार्टी में आने वाला नेता पूरी सियासी बिसात ही पलट देगा। इसी लिए अपने गृह क्षेत्र से लगातार तीन बार चुनाव हार चुके कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद बीजेपी में शामिल होते हैं तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, अमित शाह से लेकर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ तक उनका महिमामंडन करने में जुट जाते हैं।

 

उनका आना बीजेपी की मजबूती के लिए अहम बताया है। इसे यूपी में ब्राह्मण वोटों के छिटकने से रोकने को बीजेपी की रणनीति का हिस्सा बताया जाता है। हालांकि, यूपी की सियासत पर नजर रखने वालों का कहना है कि बीजेपी की ब्राह्मणों में पैठ अब भी मजबूत है, लेकिन वह मांइड गेम के सहारे ब्राह्मणों के बीच अपनी  सियासी  जमीन और पुख्ता करने में जुटी है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी 9 से 11 फीसदी तक बताई जाती है।

करीब तीन दशक पूर्व तक जब यूपी में कांग्रेस सत्ता में थी, तब उसके अधिकांश मुख्यमंत्री और बड़े चेहरे ब्राह्मण ही हुआ करते थे। इसके बाद मंडल और कमंडल की राजनीति में सामाजिक समीकरणों ने पिछड़ा नेतृत्व की उर्वरा जमीन तैयार की। मंडल-कमंडल की राजनीति के बीच उभरी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी समय- समय पर  ब्राह्मणों की भागीदारी को लेकर गोटियां बिछाने में लगीं।

2007 में बसपा सुप्रीमों मायावती ने सतीश चंद्र मिश्र को आगे बढ़ाकर ब्राह्मणों-दलित गठजोड़ के सहारे  सत्ता हासिल की थी। हालांकि, 2014 में नरेंद्र मोदी के बीजेपी का चेहरा बनने, हिंदुत्व की राजनीति के उभार के बीच ब्राह्मण बीजेपी की ओर लौटे और अब तक उनका झुकाव काफी हद तक कायम है, जबकि विपक्ष लगातार इस कोशिश में है कि किसी भी तरह से योगी का चेहरा ठाकुरवाद से जोड़कर ब्राह्मणों के बीच नाराजगी पैदा की जा सके।

आम आदमी पार्टी तो लगातार कुछ घटनाओं का हवाला देकर सीएम योगी पर ’ठाकुरवाद’ को पालने-पोसने का आरोप लगाता रहा है। हालांकि, योगी की छवि पर ऐसे आरोप कभी टिक नहीं पाए। योजनाओं में हिस्सेदारी और सत्ता में भागीदारी गिना बीजेपी इन आरोपों को धता बताती रही है। सरकार में 9 मंत्री ब्राह्मण हैं तो प्रदेश के मुख्य सचिव, डीजीपी से लेकर गृह सचिव तक के अहम पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं।

गौरतलब हो,पिछले साल जुलाई माह में कानपुर के गैंगेस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद से विपक्ष ब्राह्मणों को साधने में लगा है।समाजवादी पार्टी ने महर्षि परशुराम और स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडेय की मूर्तियां लगाने की घोषणा की तो इस अभियान में बसपा प्रमुख मायावती भी पीछे नहीं रहना चाहती हैं। उन्होंने पहले सरकार को ब्राह्मणों की उपेक्षा न करने की नसीहत दी और कहा कि सत्ता में आने के बाद वह परशुराम की मूर्तियां लगवाएंगी।

बात कांग्रेस की कि जाए तो उसने भी ब्राह्मणों को साधने के लिए जितिन प्रसाद की अगुवाई में ब्राह्मण चेतना परिषद बनाई थी। हालांकि इसके बाद भी   उप-चुनावों में विपक्ष की कवायद बेअसर रही थी। बीजेपी ने 7 में 6 सीटें जीतीं। इसमें ब्राह्मणों के प्रभाव वाली देवरिया और बांगरमऊ सीट भी शामिल थी। जबकि, बांगरमऊ में कांग्रेस ने प्रभावशाली ब्राह्मण परिवाार का चेहरा उतारा था। देवरिया में सपा ने पूर्व मंत्री ब्रह्माशंकर त्रिपाठी को उम्मीदवार बनाया था।

लेखक उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त रहे हैं।
Edited By: Samridh Jharkhand

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