Opinion: ‘आई लव’ को लेकर मुस्लिम धर्मगुरूओं में मतभेद  

 ‘आई लव’ अभियान: धार्मिक भावनाएं या चुनावी रणनीति?

Opinion: ‘आई लव’ को लेकर मुस्लिम धर्मगुरूओं में मतभेद  

उत्तर प्रदेश में ‘आई लव मोहम्मद’ और ‘आई लव महादेव/महाकाल’ पोस्टरों के कारण मुस्लिम और हिंदू समुदायों में मतभेद और राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। धर्मगुरुओं में समर्थन और विरोध के दो धड़े हैं। यह अभियान अब केवल धार्मिक प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति, पहचान और साम्प्रदायिक तनाव का शक्तिशाली उपकरण बन चुका है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति बीते कुछ दिनों से आई लव मोहम्मद विवाद के साथ आई लव महादेव, आई लव महाकाल, आई लव योगी आदित्यनान और आई लव बुलडोजर जैसे पोस्टर-होर्डिंग्स के उभार से चर्चा के केंद्र में है। यह पोस्टर-बाज़ी केवल दिखावटी सियासत नहीं, बल्कि प्रदेश की चुनावी, धार्मिक और सामाजिक पहचान की जटिलता को गहराई से उजागर कर रही है।विवाद की बड़ी वजह यह है कि आई लव मोहम्मद जैसे पोस्टर सामने क्यों आ रहे हैं जबकि इस्लाम में मोहम्मद साहब का चित्र या उन्हें किसी भी रूप में प्रदर्षित करना बुत परस्ती माना जाता है। यही वजह है मुस्लिम समाज भी इसको लेकर दो हिस्सों में बंटा हुआ नजर आ रहा है। एक धड़ा वह है जो इसे गलत और इस्लाम के विरूद्ध मानता है वहीं दूसरा वर्ग जो कहीं न कहीं राजनीति से भी प्रेरित है उसे इमसें कोई बुराई नजर नहीं आती है। यही कारण है कि यह मुद्दा धार्मिक जगत से निकलकर सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी चर्चाओं का केंद्र बन गया है।  

विरोध करने वाले धर्मगुरूओं का तर्क है कि इस्लाम में पैग़ंबर मोहम्मद साहब के नाम के साथ किसी भी तरह के प्रदर्शन, नारेबाजी या पोस्टरबाजी को परंपरा के खिलाफ माना गया है। उनका कहना है कि मोहम्मद साहब को पूरी इंसानियत के लिए रहमतुल्लिल आलमीन कहा गया है और उनके प्रति प्रेम को दिल की गहराइयों में रखना ही सच्ची सुन्नत है। सार्वजनिक रूप से ‘आई लव मोहम्मद’ के पोस्टर निकालना या सोशल मीडिया पर इस तरह के अभियान चलाना कहीं न कहीं आस्था को प्रदर्शन का रूप दे देता है, जो शरीयत और इस्लामी तालीमात से मेल नहीं खाता। कई उलेमा का मानना है कि इस कदम से गैर-मुसलमानों के बीच यह संदेश जाएगा कि मुस्लिम समाज केवल नारे और पोस्टर की राजनीति कर रहा है। साथ ही कुछ धर्मगुरू यह भी आशंका जता रहे हैं कि इस तरह के अभियान आगे चलकर राजनीतिक दलों के लिए भी सियासी हथियार बन सकते हैं।  

दूसरी ओर, अभियान का समर्थन करने वाले धर्मगुरू और सामाजिक कार्यकर्ता यह दलील देते हैं कि मौजूदा समय में इस्लाम और पैग़ंबर मोहम्मद साहब को लेकर वैश्विक स्तर पर कई तरह की गलतफहमियां फैलाई गई हैं। ऐसे में अगर कोई समुदाय प्रेम और मोहब्बत का पैगाम देकर यह बताना चाहता है कि पैग़ंबर की शिक्षा इंसानियत, भाईचारे और रहमत की है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इन धर्मगुरूओं के मुताबिक, यह प्रदर्शन अगर शांति और सौहार्द कायम करने की नीयत से किया जाए तो इसे विवाद की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। समर्थन और विरोध के इस जंग में कई बड़े नाम सामने आए हैं। अहले सुन्नत से जुड़े कुछ प्रमुख मौलाना और सूफी संत इस अभियान का खुलकर साथ दे रहे हैं। उनका कहना है कि यह पैग़ंबर से मोहब्बत जाहिर करने का एक जमीनी तरीका है, जिससे युवाओं में भी सकारात्मक असर होगा। उनका यह भी तर्क है कि आज के दौर में सोशल मीडिया के जरिये नफरत के संदेश तेजी से फैलते हैं, तो क्यों न मोहब्बत का पैगाम भी उसी अंदाज में फैलाने की कोशिश की जाए। इसके उलट देवबंदी पंथ से जुड़े कई उलेमा और मजहबी रहनुमा इसे गैर-मुनासिब बता रहे हैं। उनका मानना है कि पैग़ंबर से प्रेम का इजहार आचरण, पांच वक्त की नमाज, रोजे और अच्छे अख्लाक से होना चाहिए, न कि पोस्टर या बैनर पर लिखे नारों से।

उनके अनुसार, मोहब्बत का दावा करने वाले लोग अगर अपने अमल में पैग़ंबर की तालीम को उतार लें, तो यह समाज और देश दोनों के लिए ज्यादा हितकारी होगा। इस बहस का असर यह हुआ है कि मुस्लिम समाज दो धड़ों में बंट गया है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि मस्जिदों और मदरसों में इस विषय पर अलग-अलग बयान दिए जा रहे हैं, जिससे आम लोग भी असमंजस की स्थिति में हैं कि किसको सही माना जाए। दिलचस्प बात यह है कि युवा वर्ग इस अभियान के प्रति अधिक उत्साहित दिख रहा है। कई जगहों पर कॉलेज और यूनिवर्सिटी के मुस्लिम छात्रों ने स्वयंसेवी तौर पर ‘आई लव मोहम्मद’ लिखे पोस्टर अपने आयोजनों और सोशल मीडिया पर साझा किए। वहीं बुजुर्ग आलिम वर्ग ने इस पर नाराजगी जताते हुए कहा कि नौजवानों को मूल तालीमात की ओर लौटने की जरूरत है, न कि सतही नारों की तरफ।  

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बहरहाल, बात आई लव मोहम्मद प्रकरण की बात की जाये तो इसका आगाज़ कानपुर और बरेली से हुआ, जब बारावफात और जुमे के मौके पर मस्जिदों और सार्वजनिक स्थानों पर ‘आई लव मोहम्मद’ के पोस्टर लगाए गए। मुस्लिम समुदाय ने इसे पैगंबर के प्रति सम्मान की सार्वजनिक अभिव्यक्ति बताया, लेकिन हिंदू संगठनों ने इसे नई परम्परा और भावनाओं को भड़काने वाला कदम मानकर विरोध जताया। प्रशासन को विरोध-प्रदर्शन, नारेबाज़ी, झड़प और पथराव को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज और गिरफ्तारियों तक पहुंचना पड़ा। यह मुद्दा कानपुर, बरेली, मऊ, सहारनपुर, लखनऊ समेत कई शहरों से होते हुए राष्ट्रीय स्तर पर फैल गया।

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‘आई लव मोहम्मद’ के पोस्टर्स के जवाब में खासकर धार्मिक व भाजपा समर्थक समूहों द्वारा ‘आई लव महादेव’ और ‘आई लव महाकाल’ के पोस्टर कई शहरों में सामने आए। इसी कड़ी में लखनऊ के चौराहों और सार्वजनिक स्थानों पर ‘आई लव योगी आदित्यनाथ’ और ‘आई लव बुलडोजर’ के होर्डिंग्स लगाए गए, जो सीएम योगी आदित्यनाथ एवं उनकी बुलडोजर एक्शन नीति का सख्त संदेश देते हैं। ये पोस्टर भाजपा युवा मोर्चा के नेताओं द्वारा एयरपोर्ट चौराहा, हजरतगंज, वीवीआईपी रोड जैसी प्रमुख जगहों पर लगाए गए। इस अभियान में योगी आदित्यनाथ की इमेज को कानून-व्यवस्था के ‘रक्षक’ और अपराध के खिलाफ ‘बुलडोजर एक्शन’ से जोड़ा जा रहा है, जिससे हिंदू युवा वर्ग व भाजपा समर्थकों में बेहद लोकप्रियता मिल रही है।वर्तमान पोस्टर-होर्डिंग्स ट्रेंड चुनावी ध्रुवीकरण, पहचान की सियासत और संवादहीनता का प्रतीक बन गया है। मुख्यमंत्री योगी के पोस्टर, बुलडोजर की छवि और ‘आई लव महादेव’ जैसी टैगलाइन भाजपा के रणनीतिक ध्रुवीकरण के हथियार हैं, जिससे पार्टी हिंदू वोट बैंक और मध्यम वर्ग को मजबूती दे रही है। दूसरी ओर विपक्षी दल इस अभियान को बेरोजगारी, महंगाई और जनसमस्याओं से ध्यान हटाने का साधन मानते हैं तथा जनता को असल मुद्दों के बजाय भावनात्मक सवालों में उलझा देने की राजनीति करार देते हैं।इसके साथ ही, धार्मिक भावनाओं के खुले प्रदर्शन से साम्प्रदायिक तनाव बढ़ते हैं। समाज में वर्गीय, धार्मिक व सांस्कृतिक ध्रुवीकरण की स्थिति बन रही है, जिससे शांति व्यवस्था और प्रशासन को लगातार निपटना पड़ रहा है।

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एक तरफ जहाँ ये अभियान हिंदू-मुस्लिम पहचान को सियासी मंच पर सामने लाते हैं तो दूसरी ओर कानून-व्यवस्था के लिए सवाल भी खड़े कर देते हैं। कई जगहों पर आम लोगों, युवाओं और महिलाओं का भी सार्वजनिक प्रदर्शन, झड़प और गिरफ्तारियों तक से माहौल तनावपूर्ण बना है।राज्य सरकार इन पोस्टर्स को सख्ती से नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, लेकिन सोशल मीडिया, प्रचार और विपक्षियों की प्रतिक्रियाओं से यह विवाद लगातार तूल पकड़ता जा रहा है।कुल मिलाकर आई लव वाली ब्रांडिंग अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में सिर्फ धार्मिक समर्थन का नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति, जनभावनाओं की दिशा और राजनीतिक संवाद का शक्तिशाली औजार बन चुकी है। इससे सियासत अब विकास, रोजगार व जनकल्याण जैसे मुद्दों से हटकर पहचान, छवि और ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द घूमती दिखती है। साम्प्रदायिक तनाव, प्रशासनिक चुनौतियां और मुद्दों का भावनात्मकरण इस अभियान की बड़ी प्रवृत्ति बन चुके हैं।

संजय सक्सेना,लखनऊ
वरिष्ठ पत्रकार
skslko28@gmail।com
9454105568, 82990505

Edited By: Mohit Sinha
Mohit Sinha Picture

Mohit Sinha is a writer associated with Samridh Jharkhand. He regularly covers sports, crime, and social issues, with a focus on player statements, local incidents, and public interest stories. His writing reflects clarity, accuracy, and responsible journalism.

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