पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग और नार्को टेस्ट: भारत में फोरेंसिक जांच की पूरी सच्चाई
झूठ पकड़ने की मशीन से नार्को टेस्ट तक: न्यायिक जांच की आधुनिक तकनीकें
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले के बाद इन तकनीकों की कानूनी स्थिति और वैज्ञानिक विश्वसनीयता की पूरी जानकारी
समृद्ध डेस्क: आधुनिक युग में अपराधिक जांच की दुनिया में तकनीकी क्रांति आई है। पारंपरिक जांच विधियों के साथ-साथ वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग भी बढ़ा है। इनमें से तीन प्रमुख तकनीकें हैं, पॉलीग्राफ टेस्ट (झूठ पकड़ने वाली मशीन), ब्रेन मैपिंग (मस्तिष्क मानचित्रण), और नार्को टेस्ट (सत्य सीरम परीक्षण)। ये तीनों तकनीकें फोरेंसिक मनोविज्ञान का हिस्सा हैं और भारतीय न्यायव्यवस्था में इनका प्रयोग विवादास्पद रहा है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट के सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में इन तकनीकों की संवैधानिकता पर महत्वपूर्ण निर्णय दिया गया है।
हाइलाइट्स
- सहमति के बिना ये तकनीकें कानून तोड़ सकती हैं।
- नतीजे हमेशा सच नहीं होते, कई बार चौंकाने वाले साबित हुए हैं।
- इनके इस्तेमाल पर मानवाधिकार संगठनों की कड़ी नजर रहती है।

पॉलीग्राफ टेस्ट: झूठ पकड़ने की मशीन
पॉलीग्राफ टेस्ट क्या है?
पॉलीग्राफ टेस्ट, जिसे आमतौर पर "झूठ पकड़ने वाली मशीन" या "लाई डिटेक्टर टेस्ट" कहा जाता है, एक ऐसी तकनीक है जो व्यक्ति की शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मापकर यह पता लगाने की कोशिश करती है कि वह सच बोल रहा है या झूठ। यह तकनीक इस सिद्धांत पर आधारित है कि जब व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाएं सच बोलने की तुलना में अलग होती हैं।
पॉलीग्राफ टेस्ट कैसे काम करता है?
पॉलीग्राफ मशीन व्यक्ति के शरीर पर 4-6 सेंसर लगाकर निम्नलिखित शारीरिक संकेतकों को मापती है:
मुख्य मापदंड:
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श्वसन दर (Breathing Rate): छाती पर न्यूमोग्राफ लगाकर सांस की गति और गहराई मापी जाती है
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हृदय गति और रक्तचाप: ब्लड प्रेशर कफ से हृदय की धड़कन और रक्तचाप का मापन
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त्वचा की चालकता: उंगलियों पर इलेक्ट्रोड लगाकर पसीने की मात्रा मापी जाती है
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मांसपेशियों की गतिविधि: कभी-कभी हाथ-पैर की हरकत भी रिकॉर्ड की जाती है
परीक्षण प्रक्रिया:
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प्री-टेस्ट इंटरव्यू: परीक्षक व्यक्ति से प्रारंभिक जानकारी लेता है और तकनीक की व्याख्या करता है
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स्टिम टेस्ट: व्यक्ति से जानबूझकर झूठ बोलने को कहा जाता है ताकि उसकी झूठ बोलने की प्रतिक्रिया को समझा जा सके
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मुख्य परीक्षण: तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं:
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अप्रासंगिक प्रश्न ("क्या आपका नाम राम है?")
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नियंत्रण प्रश्न (व्यापक व्यक्तिगत प्रश्न)
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प्रासंगिक प्रश्न (अपराध से संबंधित मुख्य प्रश्न)
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पॉलीग्राफ टेस्ट क्यों किया जाता है?
जांच में सहायता: पॉलीग्राफ टेस्ट का उपयोग मुख्यतः निम्नलिखित कारणों से किया जाता है:
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संदिग्धों की बयान की सच्चाई जांचना
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गवाहों के कथन की विश्वसनीयता परखना
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अपराधियों को स्वीकारोक्ति के लिए प्रेरित करना
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निर्दोष और दोषी में अंतर करना
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रोजगार की जांच में ईमानदारी परखना
सीमाएं और समस्याएं: वैज्ञानिक समुदाय द्वारा पॉलीग्राफ की सटीकता पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं:
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राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (2003) का निष्कर्ष: "पॉलीग्राफ की अत्यधिक सटीकता की उम्मीद के लिए कोई आधार नहीं है"
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अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन: "अधिकांश मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि पॉलीग्राफ के झूठ पकड़ने के प्रमाण बहुत कम हैं"
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गलत परिणाम की दर: 10-40% तक गलत परिणाम मिल सकते हैं
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प्रतिकारक उपाय: व्यक्ति सिखाए गए तरीकों से परीक्षण को धोखा दे सकता है
भारत में पॉलीग्राफ टेस्ट की कानूनी स्थिति
भारत में पॉलीग्राफ टेस्ट की कानूनी स्थिति जटिल है। सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के निर्णय के अनुसार:
संवैधानिक सुरक्षा:
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बिना सहमति के पॉलीग्राफ टेस्ट संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन है
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यह आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार का हनन करता है
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अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भी उल्लंघन
साक्ष्य के रूप में मान्यता:
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पॉलीग्राफ के परिणाम प्राथमिक साक्ष्य नहीं माने जा सकते
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केवल विशेषज्ञ की राय के रूप में धारा 45A के तहत विचार किया जा सकता है
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स्वैच्छिक परीक्षण की स्थिति में भी मात्र जांच सहायक के रूप में उपयोग
ब्रेन मैपिंग: मस्तिष्क की गुप्त जानकारी का पता लगाना
ब्रेन मैपिंग क्या है?
ब्रेन मैपिंग या ब्रेन इलेक्ट्रिकल ऑसिलेशन सिग्नेचर प्रोफाइलिंग (BEOS) एक न्यूरो-साइकोलॉजिकल तकनीक है जो व्यक्ति के मस्तिष्क की तरंगों को मापकर यह पता लगाती है कि उसके दिमाग में किसी विशेष घटना या अपराध की जानकारी मौजूद है या नहीं। इसे P-300 तरंग परीक्षण या ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग भी कहा जाता है।
ब्रेन मैपिंग कैसे काम करता है?
ब्रेन मैपिंग तकनीक अनुभवजन्य ज्ञान (Experiential Knowledge) की पहचान के सिद्धांत पर काम करती है:
वैज्ञानिक आधार:
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जब व्यक्ति किसी परिचित वस्तु या घटना को देखता है तो उसका मस्तिष्क P300 तरंग उत्पन्न करता है
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यह तरंग 300-800 मिलीसेकेंड में आती है और इसे EEG से मापा जा सकता है
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MERMER (Memory and Encoding Related Multifaceted Electroencephalographic Response) पूर्ण पैटर्न देता है
परीक्षण प्रक्रिया:
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32-चैनल EEG कैप सिर पर लगाया जाता है
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तीन प्रकार के शब्द/चित्र दिखाए जाते हैं:
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तटस्थ शब्द: मामले से असंबंधित
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जांच शब्द: अपराध से प्रत्यक्ष संबंधित
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लक्ष्य शब्द: गुप्त जानकारी आधारित
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तकनीकी विशेषताएं:
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डेटा रिकॉर्डिंग: न्यूरो स्कैन रिकॉर्डिंग सिस्टम
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कंप्यूटर विश्लेषण: स्वचालित रिपोर्ट तैयारी
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गैर-आक्रामक: कोई दवा या इंजेक्शन नहीं
ब्रेन मैपिंग क्यों की जाती है?
अनुसंधानात्मक लाभ:
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अधिक सटीकता: TIFAC अध्ययन के अनुसार 95% संवेदनशीलता और 94% विशिष्टता
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वस्तुनिष्ठ परिणाम: व्यक्तिगत व्याख्या की कम आवश्यकता
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त्वरित परीक्षण: अपेक्षाकृत कम समय में परिणाम
जांच में उपयोगिता:
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संदिग्ध के मन में अपराध की जानकारी की उपस्थिति जांचना
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निर्दोषता साबित करने में सहायक
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धारावाहिक अपराधों में पैटर्न की पहचान
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गवाहों की स्मृति की जांच
भारत में ब्रेन मैपिंग का विकास
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
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प्रो. सी.आर. मुकुंदन द्वारा NIMHANS बैंगलोर में विकसित
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1999 में पहली बार तकनीक का प्रयोग
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गुजरात फोरेंसिक लैब में 2003 से नियमित उपयोग
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भारत में 700+ मामलों में इस्तेमाल
प्रमुख मामले:
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2008: एक महिला को हत्या के मामले में BEOS के आधार पर दोषी ठहराया (पहली बार)
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हाथरस केस (2020): CBI द्वारा आरोपियों पर BEOS परीक्षण
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महाराष्ट्र और गुजरात: व्यापक न्यायिक उपयोग
नार्को टेस्ट: सत्य सीरम का प्रयोग
नार्को टेस्ट क्या है?
नार्को एनालिसिस टेस्ट या सत्य सीरम टेस्ट एक ऐसी तकनीक है जिसमें व्यक्ति को सोडियम पेंटोथल जैसी बार्बिट्यूरेट दवा का इंजेक्शन देकर अर्ध-बेहोश अवस्था में लाया जाता है और फिर उससे सवाल पूछे जाते हैं। इस अवस्था में व्यक्ति की कल्पनाशक्ति निष्क्रिय हो जाती है और वह झूठ बोलने में असमर्थ हो जाता है।
नार्को टेस्ट कैसे काम करता है?
वैज्ञानिक सिद्धांत:
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झूठ बोलने के लिए पूर्ण चेतना और कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है
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बार्बिट्यूरेट दवाएं केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को दबाती हैं
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अर्ध-चेतन अवस्था में व्यक्ति मानसिक प्रतिरोध नहीं कर पाता
प्रयुक्त दवाएं:
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सोडियम पेंटोथल (सबसे सामान्य)
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सोडियम अमाइटल
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स्कोपोलामाइन
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सेकोनल
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हाइओसाइन
परीक्षण प्रक्रिया:
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प्री-टेस्ट साक्षात्कार:
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व्यक्ति को पूरी प्रक्रिया की जानकारी दी जाती है
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लिखित सहमति ली जाती है
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मेडिकल हिस्ट्री चेक की जाती है
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दवा प्रशासन:
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3 ग्राम सोडियम पेंटोथल को 3000 मिली डिस्टिल्ड वाटर में घोला जाता है
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व्यक्ति के वजन, आयु, और स्वास्थ्य के अनुसार खुराक तय की जाती है
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एनेस्थेटिस्ट की देखरेख में धीरे-धीरे इंजेक्शन दिया जाता है
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अर्ध-चेतन अवस्था:
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व्यक्ति का भाषण धीमा और लड़खड़ाने लगता है
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मांसपेशियां शिथिल हो जाती हैं
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चेतना का स्तर कम हो जाता है
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प्रश्नोत्तर सत्र:
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फोरेंसिक साइकोलॉजिस्ट द्वारा सवाल पूछे जाते हैं
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पूरी प्रक्रिया ऑडियो-वीडियो रिकॉर्ड की जाती है
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डॉक्टर की निगरानी में परीक्षण होता है
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नार्को टेस्ट क्यों किया जाता है?
जांच एजेंसियों के कारण:
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पारंपरिक पूछताछ में असफलता के बाद
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भौतिक साक्ष्य की कमी की स्थिति में
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Third Degree की यातना के मानवीय विकल्प के रूप में
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जटिल अपराधों में छुपी हुई जानकारी प्राप्त करने के लिए
ऐतिहासिक उपयोग:
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1922: अमेरिका में पहला प्रयोग रॉबर्ट हाउस द्वारा
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द्वितीय विश्व युद्ध: गुप्तचर एजेंसियों द्वारा इस्तेमाल
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भारत में 2002: गोधरा जांच में पहली बार प्रयोग
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तेलगी घोटाला (2003): व्यापक मीडिया कवरेज
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आरुषि हत्याकांड (2008): विवादास्पद उपयोग
नार्को टेस्ट की सीमाएं और खतरे
वैज्ञानिक सीमाएं:
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100% विश्वसनीयता का अभाव: परिणाम हमेशा सच नहीं होते
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सुझावशीलता की समस्या: व्यक्ति प्रेरित उत्तर दे सकता है
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गलत परिणाम की संभावना: तनाव और डर से झूठे बयान
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स्मृति की विकृति: दवा के प्रभाव से यादें बदल सकती हैं
स्वास्थ्य संबंधी खतरे:
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गलत खुराक से कोमा या मृत्यु का खतरा
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हृदय गति और रक्तचाप में गिरावट
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श्वसन संबंधी समस्याएं
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एलर्जिक रिएक्शन की संभावना
नैतिक और मानवाधिकार चिंताएं:
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व्यक्तिगत गोपनीयता का हनन
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मानसिक स्वतंत्रता पर आक्रमण
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अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का उल्लंघन
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यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय द्वारा अमानवीय व्यवहार माना गया
भारतीय न्यायव्यवस्था में कानूनी स्थिति
सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010): ऐतिहासिक निर्णय
मामले का महत्व: यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है जो तीनों वैज्ञानिक परीक्षण तकनीकों की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया।
न्यायाधीश मंडल:
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मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन
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न्यायाधीश आर.वी. रवींद्रन
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न्यायाधीश जे.एम. पंचाल
मुख्य निर्णय बिंदु:
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अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन:
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बिना सहमति के ये परीक्षण आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध अधिकार का हनन करते हैं
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"स्वयं के विरुद्ध गवाही" में मानसिक गवाही भी शामिल है
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शारीरिक मजबूरी के साथ-साथ मानसिक मजबूरी भी प्रतिबंधित है
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अनुच्छेद 21 का हनन:
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व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन
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मानसिक गोपनीयता (Mental Privacy) मौलिक अधिकार का हिस्सा है
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मानवीय गरिमा का सम्मान आवश्यक
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सहमति की अनिवार्यता:
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सभी परीक्षण स्वतंत्र और सूचित सहमति से ही संभव
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सहमति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज होनी चाहिए
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वकील की उपस्थिति में सहमति लेना आवश्यक
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साक्ष्य के रूप में मान्यता की सीमाएं
प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं:
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इन परीक्षणों के परिणाम सीधे साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं
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केवल पुलिस के बयान के रूप में माना जा सकता है
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स्वीकारोक्ति (Confession) नहीं माने जा सकते
धारा 27 के तहत खोजें:
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यदि परीक्षण के आधार पर कोई भौतिक साक्ष्य मिले तो वह मान्य
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उदाहरण: हत्या के हथियार का स्थान बताना और वहां से हथियार मिलना
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व्यक्ति का बयान नहीं, बल्कि मिला हुआ साक्ष्य स्वीकार्य होगा
विशेषज्ञ की राय:
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धारा 45A के तहत केवल विशेषज्ञ की राय के रूप में विचार
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न्यायाधीश की विवेकाधीन शक्ति के तहत सहायक साक्ष्य
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मुख्य साक्ष्य के साथ सहायक भूमिका में ही उपयोगी
हाल के न्यायिक निर्णय
अम्लेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025):
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सुप्रीम कोर्ट ने जमानत सुनवाई के दौरान नार्को टेस्ट के आदेश को रद्द किया
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यह स्पष्ट किया कि स्वैच्छिक नार्को टेस्ट भी दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता
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आरोपी का परीक्षण मांगने का पूर्ण अधिकार नहीं है
महत्वपूर्ण दिशानिर्देश:
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ये परीक्षण केवल जांच सहायता के लिए हैं
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न्यायिक निगरानी आवश्यक है
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नैतिक सुरक्षा उपाय का पालन अनिवार्य
वैज्ञानिक विश्वसनीयता और सीमाएं
अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक मत
पॉलीग्राफ पर अंतर्राष्ट्रीय शोध:
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अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (2003): "अत्यधिक सटीकता की उम्मीद के लिए वैज्ञानिक आधार का अभाव"
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यू.एस. सुप्रीम कोर्ट: "पॉलीग्राफ की विश्वसनीयता पर आम सहमति नहीं"
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11वीं सर्किट कोर्ट: "वैज्ञानिक समुदाय में सामान्य स्वीकृति नहीं"
ब्रेन मैपिंग पर शोध:
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भारतीय अध्ययन: 95% संवेदनशीलता, 94% विशिष्टता का दावा
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सीमाएं: केवल जानकारी की उपस्थिति, अपराधबोध नहीं
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मीडिया प्रभाव: टीवी/फिल्मों से प्राप्त जानकारी भ्रम पैदा कर सकती है
नार्को टेस्ट पर चिकित्सा मत:
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विश्व स्वास्थ्य संगठन: यातना के समान व्यवहार
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मनोवैज्ञानिक समुदाय: परिणामों की विश्वसनीयता संदिग्ध
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न्यूरोसाइंस विशेषज्ञ: ब्रेन फंक्शन पर गहरे प्रभाव
भारतीय संदर्भ में चुनौतियां
संसाधन और प्रशिक्षण:
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योग्य विशेषज्ञों की कमी: पर्याप्त प्रशिक्षित फोरेंसिक साइकोलॉजिस्ट नहीं
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तकनीकी सुविधाओं का अभाव: आधुनिक उपकरणों की कमी
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मानकीकरण की समस्या: एकरूप प्रक्रियाओं का अभाव
सामाजिक और सांस्कृतिक कारक:
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जातिवाद और पूर्वाग्रह: जांच प्रक्रिया में सामाजिक पूर्वाग्रह का प्रभाव
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भाषा की बाधा: अलग-अलग भाषाओं में परीक्षण की चुनौती
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शिक्षा का स्तर: परीक्षण परिणामों पर व्यक्ति की शिक्षा का प्रभाव
महत्वपूर्ण मामले और केस स्टडी
प्रमुख भारतीय मामले
आरुषि तलवार मामला (2008):
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नार्को टेस्ट और पॉलीग्राफ दोनों का प्रयोग
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परिणाम निष्कर्षहीन रहे
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मीडिया कवरेज ने जांच को प्रभावित किया
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न्यायालय ने परिणामों को निर्णायक साक्ष्य नहीं माना
हाथरस सामूहिक बलात्कार मामला (2020):
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CBI द्वारा सभी आरोपियों पर BEOS परीक्षण
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सामाजिक न्याय और जाति भेदभाव के मुद्दे उजागर हुए
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मीडिया ट्रायल और सामाजिक दबाव का प्रभाव
गुजरात में बम विस्फोट मामले:
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व्यापक स्तर पर तीनों परीक्षणों का प्रयोग
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NIA द्वारा आतंकवादी गतिविधियों की जांच में उपयोग
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मिश्रित परिणाम और विवादास्पद निष्कर्ष
सफलता की कहानियां
नेपाल में पहला BEOS मामला (2024):
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हत्या की जांच में सफल प्रयोग
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संदिग्ध में अपराध की जानकारी की पुष्टि
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अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तकनीक की स्वीकृति बढ़ी
माफिया डॉन और धारावाहिक हत्यारे:
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सायनाइड मोहन मामला: व्यवहारिक विश्लेषण से सफलता
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नितहरी कांड: साइकोपैथोलॉजी और फोरेंसिक तकनीक का मिला-जुला प्रयोग
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डॉ. देवेंद्र शर्मा मामला: अवैध अंग व्यापार के नेटवर्क का खुलासा
भविष्य की संभावनाएं और सुधार
तकनीकी विकास
आधुनिक न्यूरोसाइंस:
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fMRI और PET स्कैन: बेहतर ब्रेन इमेजिंग तकनीक
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: पैटर्न रिकग्निशन में सुधार
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वायरलेस सेंसर: कम invasive परीक्षण विधियां
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मल्टीमोडल एप्रोच: कई तकनीकों का संयुक्त प्रयोग
प्रशिक्षण और मानकीकरण:
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राष्ट्रीय फोरेंसिक विश्वविद्यालय में विशेष कोर्स
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अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुकूल प्रोटोकॉल
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निरंतर अनुसंधान और विकास कार्यक्रम
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विशेषज्ञों का नियमित प्रशिक्षण और अपडेट
कानूनी सुधार की आवश्यकता
नए कानूनी ढांचे:
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डेटा प्रोटेक्शन और प्राइवेसी कानून
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फोरेंसिक साक्ष्य के लिए विशेष प्रक्रिया संहिता
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पीड़ित और आरोपी अधिकारों का संतुलन
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अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए कानूनी ढांचा
न्यायिक जागरूकता:
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न्यायाधीशों के लिए फोरेंसिक साइकोलॉजी का प्रशिक्षण
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तकनीकी साक्ष्य के मूल्यांकन की बेहतर समझ
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विशेषज्ञ साक्षियों की क्षमता का उचित आकलन
निष्कर्ष
पॉलीग्राफ, ब्रेन मैपिंग, और नार्को टेस्ट आधुनिक फोरेंसिक विज्ञान की महत्वपूर्ण तकनीकें हैं, लेकिन इनका उपयोग अत्यंत सावधानी और नैतिक मापदंडों के साथ किया जाना चाहिए। भारतीय न्यायव्यवस्था में सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य के ऐतिहासिक निर्णय ने स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकार किसी भी जांच तकनीक से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
मुख्य निष्कर्ष:
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संवैधानिक सुरक्षा सर्वोपरि: बिना स्वतंत्र सहमति के ये परीक्षण असंवैधानिक हैं
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वैज्ञानिक विश्वसनीयता सीमित: 100% सटीकता का दावा निराधार है
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जांच सहायक मात्र: ये परीक्षण मुख्य साक्ष्य नहीं बन सकते
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नैतिक दिशानिर्देशों का पालन: NHRC के दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन आवश्यक
भविष्य की दिशा: इन तकनीकों का भविष्य बेहतर वैज्ञानिक अनुसंधान, कड़े नैतिक मापदंडों, और संतुलित कानूनी ढांचे में निहित है। न्याय व्यवस्था की प्रभावशीलता बढ़ाने के साथ-साथ व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना आज के समय की मुख्य चुनौती है।
आधुनिक भारत में ये तकनीकें न्याय की खोज में सहायक हो सकती हैं, बशर्ते कि इनका प्रयोग मानवीय गरिमा, संवैधानिक मूल्यों, और वैज्ञानिक पारदर्शिता के सिद्धांतों के अनुकूल हो। केवल तभी ये तकनीकें न्याय व्यवस्था के लिए वरदान बन सकती हैं, अन्यथा ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खतरा भी हो सकती हैं।
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सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।
'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।
