Opinion: संविधान की प्रस्तावना पर संघ का प्रश्न या भारत की आत्मा पर चोट?
भारतीय संविधान का ढांचा ही धर्मनिरपेक्ष और समावेशी
दत्तात्रेय होसबाले के बयान के बाद कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की ओर से तीखी प्रतिक्रियाएं आईं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि संघ 1949 से ही संविधान का विरोध करता आ रहा है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि संघ समर्थकों ने पंडित नेहरू और डॉ. भीमराव आंबेडकर के पुतले तक जलाए थे
भारतीय राजनीति में जब भी संविधान को लेकर कोई सवाल उठता है, तब वह बहस सिर्फ कानून की सीमाओं तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह देश की आत्मा और उसकी पहचान से जुड़ जाती है. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने जो बयान दिया, उसने न केवल संविधान की प्रस्तावना बल्कि स्वतंत्र भारत की विचारधारा को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है. उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि संविधान की प्रस्तावना में जो ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 1976 में इमरजेंसी के दौरान जोड़े गए थे, वे शब्द उस दौर की तानाशाही में बिना जनता की सहमति के थोपे गए थे और अब समय आ गया है कि इन शब्दों को हटाने पर गंभीर विचार किया जाए. उनका यह बयान प्रतीकात्मक नहीं बल्कि एक वैचारिक लड़ाई की ओर संकेत करता है जो अब साफ तौर पर राष्ट्र की पहचान पर केंद्रित हो गई है. जब इमरजेंसी लगाई गई थी तब देश के लोकतांत्रिक संस्थानों को कुचल दिया गया था. प्रेस की आजादी खत्म कर दी गई थी, विपक्षी नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था और संसद मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गई थी. ऐसे समय में जब नागरिकों की आवाज़ को दबा दिया गया था, तब 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे. यही वह आधार है जिस पर संघ का कहना है कि यह बदलाव लोकतंत्र के विरुद्ध था और इसीलिए अब इन्हें हटाने की आवश्यकता है.

डॉ. आंबेडकर ने यह भी स्पष्ट किया था कि समाजवादी मूल्यों की झलक संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में पहले से ही मौजूद है और धर्मनिरपेक्षता की गारंटी मौलिक अधिकारों के माध्यम से दी गई है. इसलिए इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना अनावश्यक है. इसी तरह जवाहरलाल नेहरू ने भी इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने की कभी सिफारिश नहीं की थी. उनका मानना था कि भारतीय संविधान का ढांचा ही धर्मनिरपेक्ष और समावेशी है और यह बिना कहे ही सभी नागरिकों को समानता की गारंटी देता है. लेकिन 1976 में जब देश इमरजेंसी के दौर से गुजर रहा था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ दिया. उस समय संसद में विपक्ष लगभग नगण्य था, जन प्रतिनिधित्व निष्क्रिय था और विरोध की आवाज़ें दबा दी गई थीं. सरकार ने इसे ‘कल्याणकारी राज्य’ की प्रतिबद्धता बताया लेकिन विपक्ष और अनेक संवैधानिक विशेषज्ञों ने इसे सत्ता के दुरुपयोग का प्रतीक बताया.
हालांकि इमरजेंसी के बाद 1977 में जब जनता पार्टी सत्ता में आई, तब वह चाहे तो इन शब्दों को प्रस्तावना से हटा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. यह भी इस बहस का एक दिलचस्प पक्ष है. सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार केस 1973 में प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न अंग माना और कहा कि संविधान संशोधन तो संभव है लेकिन संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती. वहीं 2024 में बलराम सिंह बनाम भारत सरकार केस में भी सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की याचिका खारिज कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है जो समय के साथ बदल सकता है और संसद को संशोधन का अधिकार है बशर्ते वह मूल संरचना को क्षति न पहुंचाए. कोर्ट ने यह भी दोहराया कि भारत का धर्मनिरपेक्ष चरित्र संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है और राज्य किसी धर्म विशेष का समर्थन नहीं करेगा.
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