कारगिल विजय दिवस: एक गोली ने छीना सहारा, पर नहीं रोक सकी बेटी का उड़ान, जानिए एक शहीद, एक वचन, और एक विरासत की गाथा
हिमाचल की धरती ने वीर दिया, उसकी विरासत आज भी जिंदा है
कारगिल विजय दिवस पर जानिए हिमाचल के वीर सपूत शहीद प्रवीन कुमार की अनसुनी कहानी। एक पत्नी के संघर्ष और एक बेटी के सपनों की प्रेरणादायक गाथा।
समृद्ध डेस्क: कारगिल की लड़ाई सिर्फ सीमाओं पर नहीं लड़ी गई थी, वह दिलों के भीतर भी लड़ी गई। प्रवीन कुमार, हिमाचल के हमीरपुर जिले के छोटे से गांव से थे, लेकिन उनका सपना बड़ा था — तिरंगे के लिए जीना और मरना। 1999 की कारगिल जंग में जब दुश्मनों की गोलियों की बौछार हो रही थी, तब प्रवीन कुमार सबसे आगे थे। उन्होंने पीछे हटना नहीं सीखा था — और इसी साहस ने उन्हें शहीद बना दिया। पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
शहादत की खबर सुन चक्कर खाकर गिर गई थीं किरणबाला

"तेरे पापा चले गए, अब तुझे पापा का सपना बनना है।"
आज वो बेटी बड़ी हो चुकी है, पढ़ाई में अव्वल है, और फौज में जाने की इच्छा रखती है। मां ने दूसरा विवाह नहीं किया, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनका फर्ज अब सिर्फ बेटी को एक मजबूत इंसान बनाना है। घर में शहीद की तस्वीर है, लेकिन वो तस्वीर सिर्फ दीवार पर नहीं, दिल में जिंदा है। यह कहानी उन हज़ारों परिवारों की आवाज़ है जो चुपचाप देश की सेवा करते हैं — बिना वर्दी के, लेकिन पूरी निष्ठा से।
गरीब परिवार से निकला यह फौलादी सिपाही
प्रवीण कुमार का जन्म 21 जून 1970 को माता सत्या देवी व पिता स्व. ईश्वर दास के घर गांव सुनहाणी, डाकघर कुल्हेड़ा, तहसील बिझड़ी, जिला हमीरपुर में हुआ था। उनके पिता दर्जी का काम करते थे, जबकि माता गृहिणी थीं। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सीनियर सेकेंडरी स्कूल कुल्हेड़ा से पूरी की। प्रवीण ने 26 अक्टूबर 1990 को 21 वर्ष की आयु में 13 जैक राइफल्स में भर्ती होकर सेना की सेवा शुरू की। प्रवीण कुमार के पांच बहनें व दो भाई हैं। दोनों भाई भी भारतीय सेना में सेवाएं दे चुके हैं। उनके माता-पिता का निधन लगभग पांच वर्ष पूर्व हो गया।
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