मानव तस्करी: आधुनिक दासता का भयावह चेहरा और भारत की न्यायिक चुनौती
US Embassy Reports और NCRB रिपोर्ट में भयावह आँकड़े उजागर
समृद्ध डेस्क: मानव तस्करी, जिसे अक्सर "आधुनिक दासता" कहा जाता है, एक संगठित अपराध है जो मानवता के मूलभूत अधिकारों का गंभीर उल्लंघन करता है। संयुक्त राष्ट्र मानव तस्करी को "लाभ के लिए लोगों का शोषण करने के उद्देश्य से बल, धोखाधड़ी या धोखे के माध्यम से उनकी भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, शरण या प्राप्ति" के रूप में परिभाषित करता है । यह केवल एक अपराध नहीं, बल्कि एक जटिल सामाजिक समस्या है जिसकी जड़ें गरीबी, असमानता और भेदभाव में गहरी हैं। इस वैश्विक समस्या का सबसे गहरा प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है, जो अक्सर यौन शोषण, जबरन श्रम और अन्य अमानवीय कृत्यों का शिकार होते हैं। यूएन ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम के अनुसार, मानव तस्करी दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है।

यह भयावह अपराध कई रूप लेता है, जिससे इसकी पहचान और रोकथाम और भी मुश्किल हो जाती है। इसके दो प्रमुख प्रकार यौन तस्करी और श्रम तस्करी हैं । यौन तस्करी में व्यक्तियों को अनुरक्षण सेवाओं, पोर्नोग्राफी, वेश्यालयों और जबरन विवाह जैसे यौन कार्यों के लिए मजबूर किया जाता है, जिसमें ऑनलाइन शोषण भी शामिल है । यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के विरुद्ध वेश्यालय में काम कर रहा हो, या यदि उसकी आयु 18 वर्ष से कम हो, तो इसे स्वतः ही यौन तस्करी माना जाता है । दूसरी ओर, श्रम तस्करी बल, धोखाधड़ी या जबरदस्ती के माध्यम से लोगों को काम या सेवा प्रदान करने के लिए प्रेरित करने का अपराध है । इसमें अक्सर कृषि, घरेलू काम, रेस्तरां और सफाई जैसे उद्योगों में ऋण बंधन, बंधुआ मजदूरी और बाल श्रम शामिल होता है।
इन प्रमुख श्रेणियों से परे, मानव तस्करी के अन्य जघन्य रूप भी मौजूद हैं। लड़कियों की तस्करी विशेष रूप से विवाह, यौन-कार्य, आपराधिक गतिविधि, गोद लेने और अंग व्यापार के लिए की जाती है । लड़कों की तस्करी मुख्य रूप से श्रम और भीख मांगने के लिए की जाती है । कभी-कभी, तस्करी किए गए बच्चों को सशस्त्र समूहों या आपराधिक गतिविधियों में भी भर्ती किया जाता है । यह बहुआयामी प्रकृति यह दर्शाती है कि तस्कर किस प्रकार कमजोरियों का फायदा उठाने के लिए अलग-अलग उद्देश्यों को अपनाते हैं।
आँकड़ों की ज़ुबानी: भारत में स्थिति और न्यायिक चुनौतियाँ
भारत में मानव तस्करी की स्थिति चिंताजनक है, जहाँ पीड़ितों में महिलाओं और बच्चों का अनुपात बहुत अधिक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, भारत में मानव तस्करी के मामलों में 2020 से 2022 तक 24% की वृद्धि हुई है । 2020 में 1,714 मामले सामने आए थे, जबकि 2022 में यह आंकड़ा 2,250 तक पहुंच गया, जिसका अर्थ है कि देश में प्रतिदिन औसतन छह मामले दर्ज होते हैं।
पीड़ितों की प्रोफाइल इस समस्या की भयावहता को उजागर करती है। 2022 में, 6,500 से अधिक मानव तस्करी पीड़ितों की पहचान की गई, जिनमें से 60% से अधिक महिलाएँ और लड़कियाँ थीं । 2020 से 2022 के बीच तस्करी के शिकार हुए कुल 16,585 पीड़ितों में से 10,453 महिलाएँ थीं । इसके अलावा, भारत को दुनिया में "टीयर-2" श्रेणी में रखा गया है, जिसका अर्थ है कि सरकार मानव तस्करी को रोकने के लिए न्यूनतम मानकों का पूरी तरह से पालन नहीं करती है, हालांकि इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास किए जा रहे हैं।
कानून प्रवर्तन और न्यायिक प्रक्रिया की स्थिति भी निराशाजनक है, जो इस समस्या को और बढ़ाती है।
भारत में मानव तस्करी के आँकड़े (2019-2022)
| वर्ष | दर्ज मामले | बरी होने की दर | चार्जशीट दायर न होने की दर |
| 2020 | 1,714 | - | - |
| 2022 | 2,250 | 80% (आरोपी) | 16% (मामलों में) |
| 2019 | 600 (अभियोजन पूर्ण) | 73% (संदिग्ध) | - |
| 2020 | - | 10.6% (दोषसिद्धि दर) | - |
(स्रोत: NCRB, Navbharat Times, US Embassy Reports)
उपरोक्त आंकड़े बढ़ते मामलों और न्यायिक प्रणाली की प्रभावशीलता के बीच एक स्पष्ट विरोधाभास को उजागर करते हैं। एक तरफ, तस्करी के मामलों की संख्या बढ़ रही है, जो या तो अपराध की बढ़ती दर या बेहतर रिपोर्टिंग को दर्शाती है। दूसरी तरफ, दोषसिद्धि दर लगातार कम हो रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया की कमजोरी का संकेत है । कुछ रिपोर्टों के अनुसार, 80% आरोपी अदालतों से बरी हो जाते हैं । 2019 में, यह दर 73% थी, जबकि 2020 में यह और भी गिरकर केवल 10.6% रह गई । यह स्थिति एक गंभीर दुष्चक्र की ओर संकेत करती है: जब अपराधी बिना किसी गंभीर दंड के आसानी से छूट जाते हैं, तो यह उन्हें अधिक जोखिम लेने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिससे तस्करी जारी रहती है । इस प्रक्रिया में देरी, गवाहों का मुकर जाना और तस्करों को आसानी से जमानत मिलना जैसे कारक इस नकारात्मक प्रवृत्ति को और भी बल देते हैं।
मूल कारण और सामाजिक-आर्थिक कारक
मानव तस्करी कोई आकस्मिक घटना नहीं है; यह एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या का परिणाम है। इस समस्या का सबसे प्रमुख कारण गरीबी और आर्थिक असमानता है । आर्थिक कठिनाइयाँ लोगों को बेहतर अवसरों के झूठे वादों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं, जिसका फायदा तस्कर उठाते हैं । तस्करी के शिकार अक्सर वही लोग होते हैं जो गरीबी से बाहर निकलकर एक बेहतर जीवन की तलाश में होते हैं । यह एक दुष्चक्र है, क्योंकि तस्करी के शिकार लोग अंततः उन गरीब इलाकों की तुलना में बहुत खराब जगहों पर पहुँच जाते हैं जहाँ वे पहले से रह रहे थे, जिससे उनका पुनर्वास और समाज में एकीकरण लगभग असंभव हो जाता है।
गरीबी के अलावा, शिक्षा और जागरूकता का अभाव एक और महत्वपूर्ण कारक है । तस्करी के जोखिमों और उसके तरीकों के बारे में सीमित जानकारी व्यक्तियों को आसानी से तस्करों के प्रलोभनों का शिकार बना देती है । सामाजिक बहिष्कार और भेदभाव भी भेद्यता को बढ़ाते हैं। महिलाएं, बच्चे, प्रवासी और अल्पसंख्यक समूह सामाजिक भेदभाव और संरचनागत समर्थन की कमी के कारण अधिक असुरक्षित होते हैं । लिंग आधारित भेदभाव विशेष रूप से लड़कियों और महिलाओं को यौन शोषण और जबरन विवाह के लिए लक्षित करता है।
प्राकृतिक आपदाएं, सशस्त्र संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता भी लोगों को विस्थापित कर देती हैं, जिससे वे शरण और स्थिरता की तलाश में कमजोर हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त, प्रौद्योगिकी के प्रसार ने ऑनलाइन भर्ती की प्रक्रिया को आसान बना दिया है, जिससे तस्करों के लिए पीड़ितों को भ्रामक तरीकों से लुभाना और भी सरल हो गया है।
कानूनी ढाँचा और सरकारी पहल
भारत में मानव तस्करी का मुकाबला करने के लिए कई संवैधानिक और विधायी प्रावधान मौजूद हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23(1) मानव या व्यक्तियों के अवैध व्यापार को प्रतिबंधित करता है । इसके अलावा, अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956 (ITPA) वाणिज्यिक यौन शोषण के लिए अवैध व्यापार की रोकथाम का प्रमुख कानून है । यह अधिनियम वेश्यालय चलाने पर रोक लगाता है और यौन शोषण के उद्देश्यों के लिए व्यक्तियों को खरीदने या प्रेरित करने पर दंड का प्रावधान करता है । भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 370 और 370A भी मानव तस्करी के अपराधों को दंडनीय अपराध मानती हैं।
कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ, सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए विभिन्न संस्थागत उपाय और योजनाएं भी लागू की हैं।
मानव तस्करी से संबंधित प्रमुख कानून और दंड
| अपराध | कानून | न्यूनतम/अधिकतम दंड |
| एक व्यक्ति की तस्करी | IPC, Trafficking Bill 2018 | 7-10 वर्ष का कारावास और जुर्माना |
| नाबालिग की तस्करी | IPC, Trafficking Bill 2018 | 10 वर्ष से आजीवन कारावास और जुर्माना |
| यौन शोषण के लिए तस्करी | ITPA | 3-7 वर्ष का कठोर कारावास और ₹2,000 का जुर्माना
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| बच्चों की खरीद-फरोख्त (वेश्यावृत्ति हेतु) | ITPA | कम से कम 7 वर्ष, अधिकतम आजीवन कारावास |
| तस्करी में लोकसेवक का शामिल होना | Trafficking Bill 2018 | आजीवन कारावास और जुर्माना |
स्रोत: ITPA 1956, IPC, Trafficking Bill 2018
भारत ने 2007 में मानव तस्करी रोधी इकाइयां (AHTUs) स्थापित कीं, जिन्हें तस्करी से संबंधित लोगों का डेटाबेस विकसित करने का कार्य सौंपा गया है । 2022 तक, देश में 768 AHTUs कार्यरत हैं । इसके अतिरिक्त, सरकार ने पीड़ितों के बचाव और पुनर्वास के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं। 'उज्ज्वला योजना' व्यावसायिक यौन शोषण के लिए महिलाओं और बच्चों की तस्करी का मुकाबला करने के लिए एक व्यापक योजना है, जो पीड़ितों के रोकथाम, बचाव, पुनर्वास और पुनर्एकीकरण पर केंद्रित है। 'स्वाधार गृह योजना' उन महिलाओं को आश्रय, भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है जो कठिन परिस्थितियों में हैं । यौन तस्करी सहित सभी अपराधों की शिकार महिलाओं के लिए 'वन-स्टॉप सेंटर' (OSC) भी स्थापित किए गए हैं, जिनकी संख्या दिसंबर 2020 तक 700 से अधिक हो गई थी।
कानूनी ढाँचे में कमियाँ और चुनौतियाँ
उपरोक्त कानूनी और संस्थागत उपायों के बावजूद, भारत के तस्करी विरोधी प्रयासों में कई महत्वपूर्ण कमियां और चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी समस्या मौजूदा कानूनी ढांचे का खंडित और बिखरा हुआ होना है। अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956, मुख्य रूप से यौन शोषण पर केंद्रित है, जबकि श्रम तस्करी जैसे अन्य प्रकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है । इससे कानून प्रवर्तन एजेंसियों को इन मामलों से निपटने में बाधा आती है।
इस असंगति को दूर करने के लिए, मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक, 2018 एक व्यापक समाधान के रूप में लाया गया था । यह विधेयक सभी प्रकार की तस्करी को संबोधित करने, पीड़ितों के तत्काल पुनर्वास और फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना का प्रावधान करता था । हालांकि, यह विधेयक 16वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही समाप्त (lapsed) हो गया । इस घटना ने एक एकीकृत कानूनी समाधान की दिशा में प्रगति को गंभीर रूप से बाधित किया। यद्यपि सरकार ने इसे फिर से तैयार किया है और हितधारकों के साथ परामर्श कर रही है, इस महत्वपूर्ण कानून की अनुपस्थिति एक बड़ी नीतिगत विफलता बनी हुई है।
मौजूदा संस्थागत इकाइयां भी चुनौतियों का सामना कर रही हैं। मानव तस्करी रोधी इकाइयों को अधिक वित्तपोषण और कर्मचारियों के लिए बेहतर प्रशिक्षण की आवश्यकता है ताकि वे प्रभावी ढंग से कार्य कर सकें । इसके अलावा, स्वाधार गृह और उज्ज्वला जैसे कार्यक्रमों को भी 2021-2022 के बजट में पर्याप्त धन आवंटित नहीं किया गया, जिससे उनके कार्यान्वयन की निरंतरता पर प्रश्नचिह्न लगता है । यह दर्शाता है कि नीतिगत इरादे के बावजूद, जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन और वित्तीय सहायता कमजोर है।
पुनर्वास और मनोवैज्ञानिक सहायता: एक उपेक्षित पहलू
मानव तस्करी से बचे लोगों के लिए न्याय केवल अपराधियों को दंडित करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें पीड़ितों का सम्मानजनक और सुरक्षित जीवन में पुनर्वास और पुनर्एकीकरण भी शामिल है। कानूनी प्रावधानों के तहत, पीड़ितों को सुरक्षित शरण स्थल, स्वास्थ्य देखभाल, कानूनी सहायता और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करने की आवश्यकता होती है । अनैतिक दुर्व्यापार (निवारण) अधिनियम 1956 भी यौनकर्मियों के पुनर्वास का प्रावधान करता है । हालांकि, जमीनी हकीकत इन आदर्शों से बहुत दूर है।
सरकारी और वित्त पोषित आश्रय गृहों में अक्सर पर्याप्त सुविधाओं की कमी होती है । रिपोर्ट बताती हैं कि 40% आश्रयों में बच्चों के शारीरिक या यौन दुर्व्यवहार को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं थे, और कर्मचारियों को दुर्व्यवहार के संकेतों को पहचानने के लिए ठीक से प्रशिक्षित नहीं किया गया था । ये कमियाँ न केवल पीड़ितों की शारीरिक सुरक्षा को जोखिम में डालती हैं, बल्कि उनके मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा पैदा करती हैं।
पुनर्वास को केवल भौतिक आश्रय प्रदान करने तक सीमित नहीं किया जा सकता। इसे एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो मनोवैज्ञानिक सहायता, शिक्षा, और कौशल विकास को शामिल करे, ताकि पीड़ित समाज की मुख्यधारा में वापस आ सकें । कानूनी सहायता प्राप्त करना भी एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिससे पीड़ित अपने अधिकारों का दावा कर सकें । दुर्भाग्य से, कमजोर आश्रय सुविधाएं और अपर्याप्त प्रशिक्षण इस नेक इरादे को कमजोर करते हैं।
समाधान और आगे की राह
मानव तस्करी एक बहुआयामी समस्या है, और इसका समाधान केवल एक एकल रणनीति से नहीं हो सकता। इसके लिए कानूनी सुधार, संस्थागत क्षमता निर्माण, सामाजिक जागरूकता और एक मजबूत पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण के संयोजन की आवश्यकता है।
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कानूनी और संस्थागत सुधार: सबसे महत्वपूर्ण कदम मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुनर्वास) विधेयक को शीघ्र पारित करना है । एक व्यापक कानून सभी प्रकार की तस्करी को परिभाषित करेगा और न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करेगा। इसके साथ ही, मौजूदा AHTUs को अधिक वित्तपोषण और कर्मचारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण प्रदान करके सुदृढ़ बनाना आवश्यक है । मुकदमों में तेजी लाने के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना भी एक प्रभावी उपाय हो सकती है।
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निवारक उपाय और जागरूकता: तस्करी की जड़ को खत्म करने के लिए, शिक्षा और जागरूकता अभियानों को बढ़ावा देना अनिवार्य है । स्कूली पाठ्यक्रमों में जीवन कौशल और आत्मरक्षा प्रशिक्षण को शामिल करना बच्चों को संभावित खतरों के प्रति संवेदनशील बना सकता है । सामुदायिक स्तर पर जागरूकता अभियान, विशेष रूप से कमजोर समुदायों में, तस्करों द्वारा उपयोग की जाने वाली भ्रामक रणनीति को बेनकाब करने में मदद कर सकते हैं । ऑनलाइन भर्ती के खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाना भी आवश्यक है।
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पुनर्वास को प्राथमिकता: पीड़ितों का पुनर्वास आपराधिक कार्यवाही से स्वतंत्र होना चाहिए । सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से पीड़ितों के लिए सुरक्षित आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल, और कानूनी सहायता सुनिश्चित करना अनिवार्य है । पुनर्वास प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सहायता और कौशल विकास को अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए, ताकि पीड़ित एक सम्मानजनक जीवन जी सकें।
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सामूहिक कार्रवाई: इस जटिल समस्या का प्रभावी समाधान केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। इसमें सरकार, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs), कानून प्रवर्तन एजेंसियों और नागरिक समाज के बीच घनिष्ठ समन्वय की आवश्यकता है । सीमा पार सहयोग को बढ़ावा देने के लिए द्विपक्षीय समझौतों, जैसे कि भारत और बांग्लादेश के बीच हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन, को भी मजबूत किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष के रूप में, मानव तस्करी के खिलाफ लड़ाई केवल कानूनी ढांचे को मजबूत करने या अपराधियों को पकड़ने तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसी लड़ाई है जिसमें समाज के हर पहलू को शामिल होना होगा - कमजोरियों को खत्म करने से लेकर पीड़ितों को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने तक। यह एक ऐसी चुनौती है जिसे समग्र, सहानुभूतिपूर्ण और दृढ़ दृष्टिकोण से ही जीता जा सकता है।
सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।
'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।
