कारगिल विजय दिवस: जब एक लड़की ने देखा बारूद का अंधेरा, और जलाई उम्मीद की रौशनी

डॉ. प्राची गर्ग की ज़ुबानी, जंग के बीच जिंदगी की वो सच्ची कहानी जो किताबों से नहीं, ज़मीन से निकली

कारगिल विजय दिवस: जब एक लड़की ने देखा बारूद का अंधेरा, और जलाई उम्मीद की रौशनी
एडिटेड इमेज (दाई और डॉ प्राची गर्ग)

कारगिल विजय दिवस पर जब पूरा देश सैनिकों की बहादुरी को सलाम करता है, तब गाज़ियाबाद की लेखिका डॉ. प्राची गर्ग एक अनसुनी दास्तां लेकर आईं — एक ऐसी लड़की की नज़रों से देखी गई जंग, जहां गोलियों से नहीं, हौसलों से लड़ी गई लड़ाई।

समृद्ध डेस्क: 1999, कारगिल एक ऐसा समय जब भारत की सरहदें गर्म थीं और दिलों में देशभक्ति उफान पर। पर ये कहानी सीमा पर तैनात सैनिकों की नहीं है, ये कहानी है उन दीवारों की जो गोलियों से छलनी हो गईं लेकिन उस घर की औरतें फिर भी उजाले का दीया बुझने नहीं देती थीं।

डॉ. प्राची गर्ग ने कारगिल युद्ध की वो दास्तान साझा की जो उन्होंने एक बच्ची की आंखों से देखी। वो बच्ची थी कारगिल के करीब रहने वाली, जिसकी आंखों ने अपने ही घर की छत को बम से उड़ते देखा, अपने पिता को सीमा पर जाते देखा और अपनी मां को आंखों में आंसू लेकर हिम्मत बांधते देखा।

एक दिन ऐसा भी आया जब उनके घर के सामने की इमारत पर दुश्मन की गोली आकर लगी — खिड़कियां टूट गईं, लेकिन घर के अंदर खड़े सैनिकों ने कहा: “ये गोली नहीं डराएगी, हम यहां हैं।”

उस युद्ध में सिर्फ सैनिक नहीं, गांव वाले, महिलाएं, शिक्षक, डॉक्टर — हर कोई एक साइलेंट वॉरियर था।
जैसे-जैसे गोलियां चलती रहीं, वैसे-वैसे देशभक्ति का रंग और गहरा होता गया।

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1997 में कैप्टन बनकर सेना में भर्ती हुईं प्राची

प्राची गर्ग उस समय भारतीय सेना में मेडिकल अफसर थीं. जून 1997 में कैप्टन बनकर सेना में भर्ती हुईं. युद्ध के समय वे 8वीं माउंटेन आर्टिलरी ब्रिगेड के साथ द्रास सेक्टर में तैनात थीं और सबसे खास बात, उस ब्रिगेड में वे अकेली महिला अफसर थीं. मई 1999 की बात है. अचानक आदेश मिला कि द्रास सेक्टर के लिए रवाना होना है. उन्हें नहीं पता था कि अब जंग के मैदान में उतरना है, लेकिन प्राची डरी नहीं. उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी गई थी उसे निभाने के लिए वो पूरी ताक़त से तैयार थीं.

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Edited By: Sujit Sinha
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