रूपकुंड झील रहस्य: क्या सच में हर अमावस्या को जीवित हो उठती हैं इन कंकालों की आत्माएं, वैज्ञानिक भी पड़ गए हैरान!

बर्फ के नीचे दबी लाशें: रूपकुंड झील, जहां हर साल खुलते हैं मौत के नई दास्तां

रूपकुंड झील रहस्य: क्या सच में हर अमावस्या को जीवित हो उठती हैं इन कंकालों की आत्माएं, वैज्ञानिक भी पड़ गए हैरान!
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समृद्ध डेस्क: हिमालय की गोद में छुपी एक ऐसी झील है जो दुनिया भर के वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और रोमांच प्रेमियों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यह है रूपकुंड झील, जिसे 'कंकाल झील' या 'मिस्ट्री लेक' के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड के चमोली जिले में समुद्र तल से 5029 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह छोटी सी झील एक ऐसा रहस्य समेटे हुए है जो आज तक पूरी तरह से सुलझा नहीं है।

रहस्यमय खोज

सन् 1942 की बात है जब एक ब्रिटिश वन अधिकारी हरि किशन माधवाल (H.K. Madhwal) ने इस झील की खोज की थी। जब बर्फ पिघली तो उन्हें एक डरावना दृश्य दिखाई दिया - झील के आसपास सैकड़ों मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। कुछ कंकालों में अभी भी मांस, बाल और नाखून चिपके हुए थे, मानो समय ने उन्हें जमा कर रखा हो। इस भयावह दृश्य को देखकर स्थानीय लोग और वन अधिकारी सभी डर गए थे।

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हिमालय में स्थित रूपकुंड झील (IS: Nature)

प्रारंभ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों को लगा था कि ये जापानी सैनिकों के अवशेष हो सकते हैं, लेकिन जांच में पता चला कि ये कंकाल बहुत पुराने हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, अब तक इस झील के आसपास लगभग 600-800 मानव कंकाल मिले हैं।


वैज्ञानिक खोजें और आधुनिक शोध

2019 का अभूतपूर्व अध्ययन

रूपकुंड झील का सबसे बड़ा रहस्य तब उजागर हुआ जब 2019 में भारत, अमेरिका और जर्मनी के वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने Nature Communications में एक क्रांतिकारी अध्ययन प्रकाशित किया। इस अध्ययन में 38 कंकालों का DNA विश्लेषण किया गया और परिणाम चौंकाने वाले थे।

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मुख्य निष्कर्ष:

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समय की दूरी का रहस्य

सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि ये लोग एक ही समय में नहीं मरे थे। रेडियोकार्बन डेटिंग से पता चला कि इन मौतों के बीच लगभग 1000 साल का अंतर था:

  • पहला समूह: 800 CE (7वीं-10वीं सदी) के आसपास मरा था

  • दूसरा समूह: 1800 CE (17वीं-20वीं सदी) के आसपास मरा था


स्थानीय लोककथाएं और किंवदंतियां

राजा जसधवल की कहानी

स्थानीय लोककथाओं के अनुसार, कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती रानी बलम्पा, सेवकों और नर्तकों के साथ नंदा देवी के दर्शन करने गया था। किंतु राजा ने इस पवित्र यात्रा में अपने मनोरंजन के लिए नर्तकों और संगीतकारों को साथ ले लिया था। देवी को यह अनुचित लगा और उन्होंने चेतावनी दी, लेकिन अहंकारी राजा ने इसे नजरअंदाज कर दिया।

परिणामस्वरूप, देवी नंदा के कोप से भयानक ओलावृष्टि हुई जिसमें लोहे के गोले जैसे बड़े-बड़े ओले गिरे और राजा के पूरे दल का सफाया हो गया। इसीलिए 'पातर नचौनी' नाम का एक स्थान है - 'पातर' यानी पत्थर और 'नचौनी' यानी नर्तक, जहां सभी नर्तक पत्थर बन गए।

हिमालय में स्थित रूपकुंड झील, अपने प्राचीन मानव कंकालों के कारण कंकाल झील के नाम से प्रसिद्ध है। (IS: Wikipedia)

नंदा देवी राज जात यात्रा का संबंध

रूपकुंड झील नंदा देवी राज जात यात्रा के मार्ग पर स्थित है, जो हर 12 साल में आयोजित होती है। यह यात्रा नंदा देवी के विदाई समारोह का प्रतीक है, जब वे अपने पीहर से ससुराल (कैलाश पर्वत) जाती हैं। इस यात्रा में एक चार सींग वाला मेढ़ा (चौसिंगया मेढ़ा) देवी को राह दिखाता है और होमकुंड में पहुंचने के बाद छोड़ दिया जाता है।

हिमालय में रूपकुंड झील के पास खोपड़ी और हड्डियों सहित मानव कंकाल के अवशेष मिले हैं, जिसे कंकाल झील के नाम से जाना जाता है (IS: Mindbrnews)

आधुनिक चुनौतियां: जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

झील का सिकुड़ना

हाल के वर्षों में एक नई चिंता सामने आई है। वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार, रूपकुंड झील सालाना 0.1% से 0.5% तक सिकुड़ रही है। चमोली के बद्रीनाथ वन प्रभाग के DFO सर्वेश दुबे के अनुसार:

"पारंपरिक रूप से रूपकुंड के आसपास बारिश के दौरान बर्फबारी होती थी, लेकिन अब केवल बारिश होती है, जिससे ढीली मिट्टी और पत्थर झील में गिर रहे हैं। यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ा है"।

पारिस्थितिकी पर प्रभाव

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ हिमनदविज्ञानी मनीष मेहता के अनुसार, "हिमालय में जलवायु की वजह से कभी बर्फबारी कम होती है तो कभी अधिक। रूपकुंड एक पेरी-ग्लेशियल झील है और कम वर्षा की वजह से ढीली मिट्टी झील में गिर रही है"


ट्रेकिंग और पर्यटन

रूपकुंड ट्रेक का विवरण

रूपकुंड ट्रेक को भारत की सबसे रोमांचक और कठिन ट्रेकिंग में से एक माना जाता है। यह मध्यम से कठिन स्तर का ट्रेक है और नए ट्रेकर्स के लिए उपयुक्त नहीं है।

मुख्य मार्ग:

  • प्रारंभिक बिंदु: लोहाजंग (7,600 फीट)

  • मध्यवर्ती स्टेशन: दीदना विलेज, अली बुग्याल, बेदनी बुग्याल, पातर नचौनी, भगवाबासा

  • अंतिम गंतव्य: रूपकुंड झील (15,750 फीट)

ट्रेक की विशेषताएं:

  • कुल दूरी: लगभग 48 किलोमीटर

  • अवधि: 7-8 दिन

  • सर्वोत्तम समय: मई-जून और सितंबर-अक्टूबर

रूपकुंड झील के पास हिमालय की पगडंडी पर ट्रेकर्स, पृष्ठभूमि में बर्फ से ढके पहाड़ (IS: escape2explore)

प्रमुख दर्शनीय स्थल

बेदनी बुग्याल: एशिया के सबसे बड़े अल्पाइन मीडो में से एक, जहां से त्रिशूल और नंदाघुंटी की शानदार तस्वीरें दिखती हैं।

पातर नचौनी: यहां से केदारनाथ, चौखंबा, नीलकंठ, त्रिशूल और नंदाघुंटी का पैनोरमिक दृश्य दिखाई देता है।

कालू विनायक मंदिर: 14,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह दुनिया का सबसे ऊंचा गणेश मंदिर है।

वैज्ञानिक सिद्धांत और रहस्य

ओलावृष्टि सिद्धांत

कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन लोगों की मौत भयानक ओलावृष्टि से हुई थी। खोपड़ियों पर मिले घावों से पता चलता है कि वे किसी गोल वस्तु (जैसे बड़े ओले) से मारे गए थे। डॉ. सुब्रतो सरकार के अनुसार, "अधिकांश कंकालों में सिर और कंधों पर चोट के निशान हैं, जो ऊपर से गिरी किसी कड़ी गोल वस्तु से लगे लगते हैं"

नए सवाल और रहस्य

2019 के अध्ययन ने कई नए सवाल खड़े कर दिए हैं:

  1. भूमध्यसागरीय लोग हिमालय में कैसे पहुंचे?

  2. क्या वे यूनानी व्यापारी या तीर्थयात्री थे?

  3. 1000 साल के अंतराल में अलग-अलग समय पर लोग वहां क्यों गए?

वैज्ञानिक अयूशी नायक (मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट) के अनुसार, "रूपकुंड केवल स्थानीय रुचि का स्थान नहीं था, बल्कि यह दुनिया भर से आगंतुकों को आकर्षित करता था"

हिमालय में रूपकुंड झील में चट्टानों पर प्रदर्शित मानव कंकाल के अवशेष मिले (IS: Swaari)

संरक्षण और भविष्य की चुनौतियां

पर्यावरणीय खतरे

रूपकुंड झील को आज कई खतरों का सामना करना पड़ रहा है:

  • जलवायु परिवर्तन से झील का आकार घट रहा है

  • अनियंत्रित पर्यटन से पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान हो रहा है

  • ट्रेकर्स द्वारा कंकालों को स्मृति चिन्ह के रूप में ले जाना

संरक्षण के प्रयास

वन विभाग फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट और वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के विशेषज्ञों से सलाह ले रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी मानवीय हस्तक्षेप से पहले गहन अध्ययन आवश्यक है क्योंकि यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है।

निष्कर्ष

रूपकुंड झील आज भी वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के लिए एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। 2019 के DNA अध्ययन ने इस रहस्य को और भी गहरा बना दिया है। यह साबित करता है कि प्राचीन काल में भी लोग दुनिया के कोने-कोने से इस दुर्गम स्थान पर आते थे, चाहे वे तीर्थयात्री हों या व्यापारी।

जलवायु परिवर्तन के इस युग में, रूपकुंड झील न केवल एक ऐतिहासिक रहस्य है बल्कि पर्यावरणीय चुनौतियों का भी प्रतीक है। इसका संरक्षण न केवल इसके वैज्ञानिक महत्व के लिए जरूरी है, बल्कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए भी आवश्यक है।

आज भी जब ट्रेकर्स रूपकुंड की यात्रा करते हैं, तो वे न केवल प्राकृतिक सुंदरता का आनंद उठाते हैं, बल्कि इतिहास के उस अनसुलझे अध्याय को भी देखते हैं जो अभी भी हमें अपने राज बताने से कतराता है। यह झील हमें याद दिलाती है कि प्रकृति के पास अभी भी कई रहस्य छुपे हुए हैं, जिन्हें सुलझाने के लिए विज्ञान और परंपरा दोनों की मदद की आवश्यकता है।

रूपकुंड झील की कहानी अभी भी अधूरी है, और शायद इसीलिए यह हमारी कल्पना को इतना मोहित करती रहती है। यह सिर्फ एक झील नहीं है, बल्कि समय का एक जमा हुआ कैप्सूल है जो अभी भी अपने राज खोलने को तैयार नहीं है।

Edited By: Samridh Desk
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