भोडा’— संथाल परगना की आदिवासी मिठाई, जो हाट-बाज़ार और प्रवास की कहानी कहती है

केरल से आए स्वाद और प्रवासी परंपरा से जुड़ी ‘भोडा’ संथाली समाज के दैनिक जीवन का अहम हिस्सा

भोडा’— संथाल परगना की आदिवासी मिठाई, जो हाट-बाज़ार और प्रवास की कहानी कहती है

संथाल परगना के हाट-बाज़ारों में मिलने वाली पारंपरिक मिठाई ‘भोडा’ न सिर्फ स्वाद का हिस्सा है बल्कि प्रवास, मेहनतकश जीवन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की एक जीवंत कहानी भी है।

दुमका: संथाल परगना के ग्रामीण हाट–बाज़ार केवल खरीद–फरोख़्त का स्थान भर नहीं हैं, बल्कि वे स्थानीय संस्कृति, रोज़गार और सामाजिक जीवन की नब्ज़ भी हैं। इन्हीं हाटों में मिलने वाली एक साधारण-सी दिखने वाली लेकिन बेहद लोकप्रिय मिठाई है— भोडा। आज यह स्थानीय पहचान का हिस्सा बन चुकी है और मेहनतकश तबके के दैनिक जीवन के स्वाद में शामिल है।

मैदानी पड़ताल और हाट-बाज़ार के विक्रेताओं से हुई बातचीत में यह साझा समझ सामने आई कि भोडा की जड़ें प्रवास से जुड़ी हैं। आमतौर पर लोग मानते हैं कि यह मिठाई केरल से संथाल परगना आई, और समय के साथ धीरे-धीरे यहां की सांस्कृतिक विरासत में घुल-मिल गई। भोडा का आकार और तलने की तकनीक दक्षिण भारत की प्रसिद्ध ‘बोंडा’ से काफी मिलती-जुलती है। इस समानता को लोग मजदूरी और रोज़गार के उद्देश्य से केरल जाने वाले प्रवासी श्रमिकों की लंबी परंपरा से जोड़कर देखते हैं।

रेलवे, निर्माण कार्य और अन्य अस्थायी रोज़गारों के सिलसिले में दशकों से होती आ रही यह आवाजाही केवल श्रम का स्थानांतरण नहीं थी—यह स्वाद, आदत और संस्कृति का भी आदान–प्रदान थी। भोडा इसी यात्रा की एक मीठी विरासत है।

स्थानीय विक्रेता बताते हैं कि वे पिछले चार वर्षों से भोडा बेच रहे हैं। इसकी तैयारी आसान नहीं होती—घोल तैयार करने से लेकर तलने तक लगभग पूरा दिन लग जाता है। इसके घोल में सोडा का उपयोग किया जाता है, जिससे भोडा हल्का, फूला हुआ और कुरकुरा बनता है। इसी विशेष बनावट और स्वाद की वजह से यह तेजी से लोकप्रिय हुई है।

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हाट-बाज़ार में भोडा आज भी ₹10 प्रति पीस की दर पर बिकती है। कम लागत और सरल संसाधनों में तैयार होने के कारण यह छोटे विक्रेताओं के लिए स्थायी आमदनी का जरिया बन चुकी है। सुबह-सुबह चाय के साथ भोडा खाने वाले मजदूर, किसान, महिलाएं और राहगीर—यही इसके सबसे बड़े उपभोक्ता हैं और इसकी पहचान का मूल स्वर भी।

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भोडा की कहानी बताती है कि झारखंड की समृद्धि केवल खनिज या उद्योगों से नहीं, बल्कि लोक परंपराओं, छोटे व्यापारों और सांस्कृतिक आदान–प्रदान से भी बनती है। यह मिठाई इस बात का प्रमाण है कि कैसे प्रवास, रोजगार और स्थानीय बाज़ार मिलकर नई सांस्कृतिक पहचान रचते हैं।

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लेखक— संथाल परगना, जैवविविधता और लोक संस्कृति पर कार्यरत शोधकर्ता।

कुलेश भंडारी

 

Edited By: Susmita Rani
Susmita Rani Picture

Susmita Rani is a journalist and content writer associated with Samridh Jharkhand. She regularly writes and reports on grassroots news from Jharkhand, covering social issues, agriculture, administration, public concerns, and daily horoscopes. Her writing focuses on factual accuracy, clarity, and public interest.

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