Opinion: नीतीश के जातीय गढ़ में बसपा की घुसपैठ क्या कुर्मी-कोइरी संग बन पाएगा नया समीकरण?
बिहार में बसपा की जमीनी पकड़ बेहद कमजोर
बिहार की राजनीति में ‘लव-कुश समीकरण’ शब्द पहली बार नीतीश कुमार के राजनीतिक अभियान में प्रमुखता से सामने आया था. लव यानी कुशवाहा (कोइरी) और कुश यानी कुर्मी जाति का गठबंधन. नीतीश खुद कुर्मी जाति से आते हैं
बिहार की सियासत में चुनावी बिसात बिछ चुकी है. हर दल अपनी-अपनी गोटियां चला रहा है और समीकरणों की जोड़-घटाव में दिन-रात जुटा है. लेकिन इस बार जो सबसे चौंकाने वाली और साहसी एंट्री हुई है, वह बहुजन समाज पार्टी की है. मायावती की पार्टी ने अब तक बिहार में बड़ी भूमिका नहीं निभाई, लेकिन अब पार्टी के राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद की एंट्री ने कई सियासी समीकरणों को झकझोर कर रख दिया है. पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में छत्रपति शाहूजी महाराज की जयंती पर हुए सम्मेलन में आकाश आनंद ने साफ कर दिया कि बसपा अब बिहार में दलितों के साथ-साथ कुर्मी और कोइरी जातियों को साधने के लक्ष्य के साथ मैदान में उतरेगी. उन्होंने बसपा के 2025 विधानसभा चुनाव में सभी 243 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर दी. लेकिन अब सवाल यह है कि क्या बसपा सचमुच बिहार की सियासत को प्रभावित कर सकती है? या फिर यह भी एक चुनावी शिगूफा बनकर रह जाएगी? सवाल बड़ा है और जवाब उससे भी ज्यादा पेचीदा.

आकाश आनंद ने अपने पूरे भाषण में छत्रपति शाहूजी महाराज को सामाजिक न्याय का प्रतीक बनाकर पेश किया. उन्होंने बताया कि कैसे शाहूजी महाराज ने अपने शासन में 50% आरक्षण लागू किया और समाज के दलित व पिछड़े तबकों को सम्मान दिलाया. यह सिर्फ इतिहास का संदर्भ नहीं था. यह एक गहरी रणनीति थी. शाहूजी महाराज खुद कुर्मी जाति से आते थे और बसपा ने उन्हें आगे कर कुर्मी समाज को भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोशिश की है. यही नहीं, बसपा के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अनिल कुमार भी कुर्मी जाति से हैं. यानी एक जातीय पहचान के जरिए पूरे समुदाय को जोड़ा जा रहा है, और दलितों के साथ कुर्मी वोटबैंक को जोड़ने की जमीन तैयार की जा रही है. यह वही सामाजिक इंजीनियरिंग है जो मायावती ने उत्तर प्रदेश में की थी. वहां उन्होंने दलितों के साथ कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ी जातियों को जोड़कर एक व्यापक बहुजन गठबंधन खड़ा किया था और 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी.
बिहार की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों की आबादी करीब 16% है. कुर्मी समाज लगभग 2.5% और कोइरी यानी कुशवाहा जाति लगभग 5% मानी जाती है. यानी कुल मिलाकर करीब 23-24% वोटर ऐसे हैं, जो इस बसपा के सामाजिक समीकरण का हिस्सा बन सकते हैं. अगर बसपा इस वोट बैंक का आधा भी अपने पक्ष में करने में सफल रही, तो वह चुनावी नतीजों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है. हालांकि, यह भी सच है कि बिहार में बसपा की जमीनी पकड़ बेहद कमजोर है. पार्टी अब तक कोई बड़ा जनाधार नहीं बना सकी है. लेकिन यही वजह है कि अब संगठन को मजबूत करने की कवायद शुरू हो चुकी है. आकाश आनंद के नेतृत्व में पार्टी ने हर जिले में सम्मेलन, समीक्षाएं और बूथ स्तर की बैठकों का सिलसिला शुरू कर दिया है.
बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या वह खुद को सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित रहने वाली पार्टी के बजाय एक राष्ट्रीय ताकत के तौर पर स्थापित कर पाएगी? बिहार में चुनाव लड़ना और जीतना दो अलग चीजें हैं. खासकर तब, जब वहां पहले से ही आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी जैसी मजबूत पार्टियां मौजूद हों. दूसरी चुनौती यह है कि बसपा के जितने भी विधायक अब तक बिहार में जीतकर आए, उन्होंने बाद में दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया. संगठनात्मक स्तर पर बसपा की स्थिति कमजोर रही है तीसरी चुनौती यह है कि बिहार की राजनीति में स्थानीय चेहरे बेहद मायने रखते हैं. लोगों को जमीन से जुड़े नेता चाहिए, जो उनके मुद्दों को उठाएं. आकाश आनंद अभी एक बाहरी चेहरे के रूप में देखे जा रहे हैं. उन्हें खुद को बिहार की मिट्टी का नेता साबित करना होगा.
हालांकि, मायावती के पास अनुभव है और आकाश आनंद के पास ऊर्जा. अगर इन दोनों का संतुलन बना, तो बसपा न सिर्फ जातीय समीकरणों में सेंध लगा सकती है, बल्कि खुद को एक नए विकल्प के रूप में भी स्थापित कर सकती है. नीतीश कुमार के लिए यह सबसे गंभीर खतरा है. अगर बसपा ने कुर्मी और कोइरी वोट बैंक में सेंध लगा दी, तो उनके लिए सत्ता बचा पाना मुश्किल हो जाएगा. बीजेपी पहले ही इस वोट बैंक में घुसपैठ कर रही है, और अब बसपा की एंट्री से मुकाबला त्रिकोणीय हो जाएगा. आरजेडी को भी चिंता है कि कहीं पिछड़े वोटों का एक हिस्सा बसपा की ओर न खिसक जाए. दलित वोटरों में भी बदलाव की संभावना है, खासकर उन इलाकों में जहां मायावती की नीतियों का असर रहा है.
बसपा की इस बार की रणनीति साफ है जातियों को जोड़ो, सामाजिक न्याय की बात करो, और खुद को एक वैकल्पिक ताकत के रूप में स्थापित करो. यह प्रयोग नया नहीं है, लेकिन बिहार की राजनीति में इस बार अगर मायावती की बसपा लव-कुश समीकरण को तोड़ने में सफल हुई, तो यह 2025 के चुनाव नतीजों को पूरी तरह बदल सकता है अब देखना यही है कि क्या आकाश आनंद बिहार की सियासत में नई लकीर खींच पाएंगे या फिर यह भी एक असफल प्रयोग बनकर रह जाएगा. लेकिन इतना तय है कि बसपा की हुंकार ने नीतीश, लालू और बीजेपी के खेमे में बेचैनी जरूर बढ़ा दी है.
संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार
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सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।
'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।
