जब दुश्मन सीमा पर था, और मतभेद अंदर: ‘ऑपरेशन विजय’ की एक अनसुनी कहानी
थलसेना बनाम वायुसेना: रणनीति पर असहमति ने कितना बिगाड़ा समीकरण?
कारगिल युद्ध की 26वीं वर्षगांठ पर उठता है बड़ा सवाल – क्या भारतीय सेना के भीतर रणनीति पर असहमति थी? जानिए वायुसेना की भूमिका को लेकर जनरल्स में क्यों हुआ था मतभेद।
नई दिल्ली: कारगिल विजय दिवस के 26 साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन इस युद्ध से जुड़ी कुछ अनकही सच्चाइयाँ आज भी सैन्य इतिहासकारों और रणनीतिक विशेषज्ञों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि भारत की थलसेना और वायुसेना के शीर्ष जनरल इस बात पर एकमत नहीं थे कि वायुसेना को युद्ध में कब और कैसे शामिल किया जाए।

अंदर की बात क्या थी?
सूत्रों के अनुसार, कई वरिष्ठ जनरल यह मानते थे कि युद्ध की प्रकृति ऐसी नहीं थी कि वायुसेना को तुरंत उतारा जाए। वहीं दूसरी ओर, कुछ जनरल यह मान रहे थे कि अगर वायुसेना का प्रयोग प्रारंभ से ही किया जाता, तो कम नुकसान में बड़ी जीत मिल सकती थी।
बंद कमरे में क्या बोले वाइस चीफ ऑफ एयरस्टाफ ...
18 मई 1999 को कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की बैठक चल रही थी। तत्कालीन वाइस चीफ ऑफ एयरस्टाफ चंद्रशेखर ने जन. वीपी मलिक का समर्थन करते हुए कारगिल में वायुसेना की मदद की बात कही। उन्होंने कहा, इस अपमानजनक स्थिति में वायुसेना की मारक क्षमता का इस्तेमाल जरूरी है। सीसीएस ने उनके प्रपोजल को नकार दिया। तर्क यह दिया गया कि इससे स्थिति बिगड़ सकती है। ऐसे में भारत-पाक के बीच ट्रैक-2 डायलाग की संभावना खत्म हो जाएगी। सेनाध्यक्ष मलिक के मुताबिक, चंद्रशेखर ने मुझे विश्वास दिलाया कि कारगिल में वायुसेना की उपस्थिति जरूरी है। वायुसेना और नेवी के मामले में भारत, पाकिस्तान पर भारी हैं। बैठकें और तर्क-वितर्क चलते रहे, मगर हमें अपने फाइटर जहाजों को उड़ाने की मंजूरी नहीं मिली। 'सीसीएस' अपनी बात पर अड़ी थी। उसका मानना था कि वायुसेना कारगिल नहीं जाएगी। हमें पाक के इरादों का पता नही है। हमारी छोटी सी गलती युद्ध को बुलावा दे सकती है। ऐसी हालत में भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था को कैसे और क्या जवाब देगी।
क्या था राजनीतिक दबाव?
उस समय की सरकार बेहद सावधानी से कदम उठा रही थी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि और सीमित युद्ध की रणनीति को लेकर काफी चिंता थी। यही कारण रहा कि एयरफोर्स को सीमित भूमिका में देर से उतारा गया।
इतिहासकारों का मत:
विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर भारतीय सेनाओं के बीच रणनीतिक समन्वय अधिक बेहतर होता, तो शहीदों की संख्या और संघर्ष का समय दोनों कम हो सकते थे।
(नोट: समृद्ध झारखंड इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं करता है।)
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