Naxalism in India: बंदूक और विकास के बीच फंसी जिंदगियां, क्या भारत नक्सलवाद को जड़ से खत्म कर पाएगा?

नक्सल प्रभावित ज़िलों की पूरी रिपोर्ट

Naxalism in India: बंदूक और विकास के बीच फंसी जिंदगियां, क्या भारत नक्सलवाद को जड़ से खत्म कर पाएगा?
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नक्सलवाद भारत में सामाजिक-आर्थिक असमानता, भूमि विवाद और सरकारी उपेक्षा से उपजा एक हिंसक आंदोलन है, जिसकी शुरुआत 1967 में नक्सलबाड़ी से हुई थी और जो अब भी कुछ हिस्सों में सक्रिय है।

समृद्ध डेस्क: भारत में नक्सलवाद की जड़ें एक जटिल ऐतिहासिक, सामाजिक और वैचारिक पृष्ठभूमि में निहित हैं, जो केवल एक विद्रोह तक सीमित नहीं है, बल्कि यह स्वतंत्रता के बाद की विकास यात्रा के गहरे अंतर्विरोधों को दर्शाता है। इस आंदोलन की शुरुआत को समझने के लिए, 1960 के दशक के भारत के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य को देखना आवश्यक है, जहाँ शहरी विकास और ग्रामीण उपेक्षा के बीच एक गहरी खाई थी।

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नक्सलबाड़ी से पहले का संदर्भ: शासन और विकास का अभाव

स्वतंत्रता के बाद के दशकों में, भारत सरकार ने भूमि सुधारों को लागू करने का प्रयास किया, लेकिन ये प्रयास अधिकांशतः असफल रहे। विशेष रूप से, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, भू-स्वामित्व कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित था, जबकि बड़े पैमाने पर किसान और बटाईदार गरीबी और शोषण का शिकार थे। इन बटाईदारों को अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा ज़मींदारों को देना पड़ता था और उनके पास अपनी ज़मीन पर कोई कानूनी अधिकार नहीं था। इसके साथ ही, देश के दूरस्थ और वन-बहुल क्षेत्रों में, विशेषकर आदिवासी बहुल इलाकों में, शासन और प्रशासन का पूर्ण अभाव था। इन क्षेत्रों में सरकार की पहुँच नाममात्र की थी, जिससे कानून व्यवस्था, न्याय और विकास की प्रक्रियाएँ ठप्प हो गईं। इसने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहाँ असंतोष और निराशा की भावना ने ज़ोर पकड़ना शुरू कर दिया।

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बटाईदारों को अपनी उपज का हिस्सा जमींदारों को देना पड़ता था (एडिटेड ग्राफिक इमेज)

चिंगारी: 1967 का नक्सलबाड़ी विद्रोह

नक्सलवाद की ऐतिहासिक शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव में हुई एक स्थानीय घटना से मानी जाती है। यह घटना भूमि अधिकारों को लेकर हुए एक विवाद से भड़की, जिसमें एक आदिवासी बटाईदार को ज़मींदारों द्वारा जबरन उसकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया था। इस अन्याय के खिलाफ बटाईदारों और किसानों ने विद्रोह कर दिया, जिसकी अगुवाई स्थानीय कम्युनिस्ट नेता जैसे चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने की। इस विद्रोह का तात्कालिक उद्देश्य स्थानीय कृषि सुधारों को लागू करना और ज़मींदारों के शोषण को समाप्त करना था।

यह एक साधारण किसान विद्रोह के रूप में शुरू हुआ, लेकिन इसे जल्दी ही एक शक्तिशाली वैचारिक ढाँचे में ढाल दिया गया। उस समय, माओत्से तुंग (Mao Zedong) की विचारधारा, जिसे "प्रोलॉन्गड पीपुल्स वॉर" (protracted people's war) या "लंबे समय तक चलने वाले जन युद्ध" के रूप में जाना जाता है, ने इन नेताओं को आकर्षित किया। इस रणनीति के तहत, क्रांति की शुरुआत गाँवों से होती है, जहाँ किसान और मज़दूर सशस्त्र संघर्ष करते हैं, और धीरे-धीरे शहरों को घेरकर सत्ता पर कब्ज़ा कर लेते हैं। इस विचारधारा ने नक्सलबाड़ी विद्रोह को एक स्थानीय मुद्दे से उठाकर एक देशव्यापी क्रांतिकारी आंदोलन का रूप दे दिया। यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने साबित किया कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक असंतोष को एक वैचारिक हथियार मिल गया था, जिससे वह एक संगठित और हिंसक आंदोलन में बदल गया।

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1967 का नक्सलबाड़ी विद्रोह (एडिटेड ग्राफिक इमेज)

वैचारिक मतभेद और आंदोलन का जन्म

नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [CPI(M)] के भीतर एक वैचारिक विभाजन हुआ। पार्टी का एक धड़ा, जिसमें चारु मजूमदार जैसे नेता शामिल थे, संसदीय लोकतंत्र के मार्ग को छोड़कर सशस्त्र क्रांति के पक्ष में था। उनका मानना था कि व्यवस्थागत परिवर्तन केवल बंदूक की नली से ही संभव है, न कि चुनाव के माध्यम से। इस वैचारिक मतभेद के परिणामस्वरूप, उन्होंने CPI(M) से अलग होकर ऑल इंडिया कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रेवोल्यूशनरीज (AICCCR) का गठन किया, जो बाद में 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) [CPI(ML)] बन गई। इस घटना ने नक्सलवाद को एक अलग पहचान दी और भारत में वामपंथी उग्रवाद के जन्म को औपचारिक रूप दिया।

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वैचारिक मतभेद और आंदोलन का जन्म (एडिटेड ग्राफिक इमेज)

सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि: असंतोष के कारक और "लाल गलियारे" का निर्माण - नक्सलवाद की आग केवल वैचारिक चिंगारी से नहीं भड़की, बल्कि यह एक लंबे समय से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा के ईंधन से जलती रही। आंदोलन का भौगोलिक विस्तार और इसकी जड़ें भारत के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में ही क्यों मज़बूत हुईं, इसकी व्याख्या उन व्यवस्थागत विफलताओं में मिलती है, जो इन क्षेत्रों की पहचान बन गईं।

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व्यवस्थागत उपेक्षा और भूमि का विस्थापन

नक्सलवाद का प्रसार मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में हुआ जहाँ आदिवासी और दलित समुदाय रहते थे, जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर थे। इन समुदायों के पारंपरिक जीवन, भूमि और वन संसाधनों पर ब्रिटिश काल से ही हमले हो रहे थे, और स्वतंत्रता के बाद भी यह क्रम जारी रहा। बड़े-बड़े बाँधों, खनन परियोजनाओं और औद्योगीकरण के कारण आदिवासी समुदायों को उनकी पुश्तैनी ज़मीनों से बेदखल किया गया। इस विस्थापन ने न केवल उनकी आजीविका को छीना, बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी तोड़ दिया।

इसके अतिरिक्त, इन दूरदराज के क्षेत्रों में शासन-प्रशासन का एक गहरा "निर्वात" था। पुलिस, न्यायपालिका और सरकारी तंत्र की अनुपस्थिति या अकुशलता ने नक्सलवादियों को स्थानीय लोगों के बीच अपनी पैठ बनाने का अवसर दिया। वे अक्सर इन क्षेत्रों में समानांतर सरकारें चलाते थे, और त्वरित, हालाँकि क्रूर, न्याय प्रदान करके लोगों का विश्वास जीतने का प्रयास करते थे। यह स्थिति इस बात की पुष्टि करती है कि नक्सलवाद की मुख्य जड़ें सामाजिक-आर्थिक शोषण, भूमि के अधिकारों से वंचित होने और सरकार की उपेक्षा में हैं।

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आदिवासी समुदायों को उनकी ही जमीनों से बेदखल किया गया (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

भौगोलिक अभिव्यक्ति: "लाल गलियारा"

नक्सलवाद का प्रसार एक यादृच्छिक घटना नहीं था, बल्कि यह एक विशिष्ट भौगोलिक पैटर्न का पालन करता था। यह आंदोलन मुख्य रूप से मध्य और पूर्वी भारत के राज्यों जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में केंद्रित हो गया। इस क्षेत्र को "लाल गलियारा" (Red Corridor) के नाम से जाना जाता था, क्योंकि यहाँ नक्सलवादी गतिविधियाँ सबसे अधिक थीं।

यह गलियारा सिर्फ़ एक भौगोलिक नाम नहीं था, बल्कि यह उन व्यवस्थागत विफलताओं का मूर्त रूप था जिनकी वजह से यह आंदोलन पनपा। इन क्षेत्रों की विशेषताएँ एक जैसी थीं: दुर्गम, घने वन और पहाड़ी इलाक़े, जो गुरिल्ला युद्ध के लिए आदर्श थे, और एक बड़ी संख्या में ग़रीब, शोषित और आदिवासी आबादी, जो आंदोलन के लिए एक भर्ती आधार बन सकती थी। यह बताता है कि आंदोलन का प्रसार वहाँ हुआ, जहाँ दुर्गम भूगोल और वंचित आबादी दोनों एक साथ मौजूद थे। इसलिए, इस समस्या का समाधान भी एक लक्षित, क्षेत्रीय दृष्टिकोण होना चाहिए जो इन विशिष्ट शिकायतों को संबोधित करे।

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"लाल गलियारा" (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

उग्रवाद का विकास: रणनीति, संरचना और वित्तपोषण - प्रारंभिक नक्सलवादी गुटों की बिखरी हुई संरचना से लेकर आज के संगठित आंदोलन तक, नक्सलवाद ने अपनी रणनीति, संरचना और वित्तपोषण के तरीकों में एक महत्वपूर्ण विकास किया है।

सीपीआई(माओवादी) का गठन

2004 में, नक्सलवादी आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया, जब दो प्रमुख गुटों—पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG) और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (MCCI)—का विलय हो गया। इस विलय के परिणामस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) या CPI(Maoist) का गठन हुआ। इस विलय ने आंदोलन को एक केंद्रीकृत, अधिक दुर्जेय संगठन प्रदान किया, जिससे सरकार के लिए इन गुटों का मुकाबला करना और भी कठिन हो गया। इस नई एकीकृत संरचना ने उन्हें अपनी गतिविधियों को बेहतर ढंग से समन्वित करने और एक संयुक्त मोर्चे के रूप में काम करने की अनुमति दी।

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पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG) और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (MCCI) का विलय -(एडिटेड काल्पनिक इमेज)

सैन्य और राजनीतिक रणनीति

CPI(Maoist) ने एक दो-तरफा रणनीति अपनाई है, जिसमें एक सैन्य और एक राजनीतिक विंग शामिल है। उनकी सैन्य शाखा को पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के रूप में जाना जाता है, जो सुरक्षा बलों और सरकारी प्रतिष्ठानों पर गुरिल्ला हमले, आईईडी विस्फोट और घात लगाकर हमले करने का काम करती है। वहीं, उनकी राजनीतिक शाखा प्रचार, भर्ती और स्थानीय आबादी को संगठित करने पर ध्यान केंद्रित करती है। दोनों विंग्स मिलकर काम करते हैं, जहाँ एक तरफ़ सैन्य कार्रवाई भय का माहौल बनाती है, वहीं राजनीतिक विंग लोगों को अपने उद्देश्यों के लिए आकर्षित करने का प्रयास करती है।

सैन्य और राजनीतिक रणनीति (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

वित्तपोषण और भर्ती: स्थानीय स्रोतों की ओर बदलाव

अक्सर यह माना जाता है कि नक्सलवादी आंदोलन को विदेशी स्रोतों से वित्तपोषण मिलता है। हालाँकि, समय के साथ इस आंदोलन ने अपनी फंडिंग के तरीकों में महत्वपूर्ण बदलाव किया है। वर्तमान में, यह आंदोलन बड़े पैमाने पर आत्मनिर्भर है और अपनी गतिविधियों के लिए स्थानीय स्रोतों पर निर्भर करता है। इसमें मुख्य रूप से क्षेत्र में चल रहे खनन, निर्माण, और अन्य व्यावसायिक गतिविधियों से उगाही, सुरक्षा के नाम पर वसूली, और अवैध वन और खनिज संसाधनों पर नियंत्रण शामिल है। आंदोलन की यह आत्मनिर्भरता इसे विदेशी दबाव से अप्रभावित रखती है और स्थानीय स्तर पर धन के प्रवाह को रोकना एक बड़ी चुनौती बन जाता है।

इसके अलावा, आंदोलन ने शहरी क्षेत्रों में अपनी पहुँच बनाने के लिए एक नया तरीका अपनाया है, जिसे "अर्बन नक्सल" (Urban Naxal) के रूप में जाना जाता है। ये शहरी समर्थक सीधे तौर पर लड़ाई में शामिल नहीं होते, बल्कि वे आंदोलन को बौद्धिक और तार्किक समर्थन प्रदान करते हैं। वे प्रचार-प्रसार करते हैं, छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भर्ती करते हैं, कानूनी सहायता प्रदान करते हैं, और मुख्यधारा के मीडिया और बौद्धिक हलकों तक पहुँच बनाते हैं। यह दिखाता है कि आंदोलन ने अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपनी रणनीति को ग्रामीण क्षेत्रों से आगे बढ़ाया है।

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अर्बन नक्सल: आंदोलन ने शहरी क्षेत्रों में अपनी पहुँच बनाने के लिए एक नया तरीका अपनाया (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

राज्य का प्रति-उग्रवाद ढांचा: एक दोहरी रणनीति - सरकार ने नक्सलवाद के खतरे का मुकाबला करने के लिए एक बहुआयामी और दो-तरफा रणनीति अपनाई है। इस रणनीति का एक हिस्सा सुरक्षा और सैन्य कार्रवाई पर केंद्रित है, जबकि दूसरा हिस्सा विकास और प्रशासन को बेहतर बनाने पर ज़ोर देता है।

दोहरी रणनीति: सुरक्षा और विकास

सरकार का मानना है कि केवल सैन्य कार्रवाई से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए, 2004 के बाद से, सरकार ने एक "दोहरी रणनीति" (two-pronged approach) अपनाई है, जिसमें नक्सलवादियों को सैन्य बल से दबाना और साथ ही उन क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक विकास सुनिश्चित करना शामिल है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य न केवल उग्रवादियों को बेअसर करना है, बल्कि उन मूल कारणों को भी समाप्त करना है जिन्होंने इस आंदोलन को जन्म दिया।

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दोहरी रणनीति: सुरक्षा और विकास (एडिटेड काल्पनिक इमेज)


सुरक्षा अभियान और उनके परिणाम

इस दोहरी रणनीति के तहत, सरकार ने कई बड़े सुरक्षा अभियान चलाए हैं। इनमें से एक सबसे प्रमुख अभियान 2009-2010 में शुरू किया गया "ऑपरेशन ग्रीन हंट" था। इस अभियान का उद्देश्य नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाना और उग्रवादियों को उनके गढ़ों से बाहर निकालना था। हालाँकि, इस अभियान की सफलता के साथ-साथ इसकी आलोचनाएँ भी हुईं। आलोचकों ने मानवाधिकारों के कथित उल्लंघन, राज्य-प्रायोजित मिलिशिया के उपयोग और स्थानीय आबादी के अलगाव का मुद्दा उठाया। यह एक विरोधाभास को उजागर करता है: सुरक्षा पर अत्यधिक ध्यान, अल्पकालिक सफलता दे सकता है, लेकिन यह दीर्घकालिक रूप से लोगों का विश्वास खोने और नए सिरे से असंतोष पैदा करने का कारण भी बन सकता है।

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"ऑपरेशन ग्रीन हंट" (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

विकासात्मक पहल और उनका प्रभाव

सरकार ने इन क्षेत्रों में विकास के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं। इनमें सड़कों और पुलों का निर्माण, दूरसंचार कनेक्टिविटी, शिक्षा के बुनियादी ढाँचे और आजीविका सृजन कार्यक्रम शामिल हैं। इन विकासात्मक प्रयासों का उद्देश्य उन क्षेत्रों में शासन को बहाल करना है जहाँ पहले इसका अभाव था।

हाल के वर्षों में, सरकार ने अपनी रणनीति को और भी परिष्कृत किया है, जिसे "SAMADHAN" रणनीति के रूप में जाना जाता है। यह एक संक्षिप्त शब्द है जो कई तत्वों को समाहित करता है: स्मार्ट नेतृत्व, आक्रामक रणनीति, प्रेरणा और प्रशिक्षण , कार्यवाही योग्य खुफिया जानकारी , डैशबोर्ड केपीआई, प्रौद्योगिकी का उपयोग, प्रत्येक क्षेत्र के लिए कार्य योजना, और वित्तपोषण तक पहुँच नहीं। यह रणनीति पिछली विफलताओं से सीखने और एक अधिक समग्र, डेटा-संचालित और प्रौद्योगिकी-आधारित दृष्टिकोण अपनाने की इच्छा को दर्शाती है।

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सामाधान रणनीति (एडिटेड काल्पनिक इमेज)

मानवीय लागत और सामाजिक प्रभाव

नक्सलवाद की हिंसा का सबसे बुरा असर उन लाखों आम नागरिकों पर पड़ा है जो इन क्षेत्रों में रहते हैं। यह संघर्ष केवल सैन्य या राजनीतिक नहीं है; यह एक मानवीय त्रासदी है जिसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ रही है।

हिंसा का कहर: एक सांख्यिकीय अवलोकन

नक्सलवाद के कारण हुई हिंसा का आँकड़ा इस संघर्ष की गंभीरता को दर्शाता है। 2004 से 2021 तक, कुल 11,280 लोग हिंसा में मारे गए, जिनमें 2,652 सुरक्षाकर्मी, 6,864 नागरिक और 1,764 नक्सलवादी शामिल थे। यह आँकड़ा बताता है कि नागरिकों को इस संघर्ष में सबसे अधिक नुकसान हुआ है, क्योंकि वे अक्सर दोनों पक्षों की हिंसा के शिकार होते हैं।

नागरिकों की दुर्दशा

इन संघर्ष क्षेत्रों में रहने वाले नागरिक "दो पाटों के बीच" पिसते हैं। एक तरफ़, वे नक्सलवादी हिंसा के शिकार होते हैं, जो उन्हें मुखबिरी के संदेह में मार डालते हैं या ज़बरन भर्ती करते हैं। दूसरी तरफ़, उन्हें सुरक्षा बलों की कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। इस हिंसा ने उनके जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। उनके घरों को नष्ट कर दिया जाता है, उनकी आजीविका बाधित होती है, और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाएँ ठप्प हो जाती हैं। डर और अविश्वास का माहौल पूरे समुदायों के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ देता है, जिससे कई पीढ़ियाँ मनोवैज्ञानिक आघात से गुज़रती हैं।


उपेक्षा का दृश्य प्रतिनिधित्व

नक्सलवाद की जड़ें जिस व्यवस्थागत उपेक्षा में निहित हैं, उसे नीचे दी गई तालिका के माध्यम से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह तालिका नक्सल प्रभावित ज़िलों में सामाजिक-आर्थिक संकेतकों की तुलना राष्ट्रीय औसत से करती है, जिससे यह पता चलता है कि इन क्षेत्रों में विकास की कमी एक आकस्मिक घटना नहीं बल्कि एक प्रणालीगत समस्या है।

सामाजिक-आर्थिक संकेतक: नक्सल प्रभावित ज़िले बनाम राष्ट्रीय औसत

संकेतक
नक्सल प्रभावित ज़िले (औसत)
राष्ट्रीय औसत
साक्षरता दर
(2011)
गरीबी रेखा से नीचे की आबादी
(2011-12)
सड़क घनत्व (प्रति 100 वर्ग किमी)
राष्ट्रीय औसत से कम
किमी (2018-19)
स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच
सीमित, बुनियादी ढाँचे का अभाव
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में असमान वितरण
यह तुलनात्मक डेटा बताता है कि नक्सलवाद की उत्पत्ति केवल वैचारिक नहीं है, बल्कि यह उन क्षेत्रों में सरकार की ऐतिहासिक और वर्तमान उपेक्षा का एक प्रत्यक्ष परिणाम है।

वर्तमान स्थिति, चुनौतियाँ और भविष्य का मार्ग
हाल के वर्षों में, भारत में नक्सलवाद में एक महत्वपूर्ण गिरावट देखी गई है, जो सरकारी नीतियों की सफलता को दर्शाती है। हालाँकि, यह आंदोलन पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है और कुछ चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं।
नक्सलवाद का पतन: एक मात्रात्मक और गुणात्मक विश्लेषण
गृह मंत्रालय के आँकड़े स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि नक्सलवाद एक सैन्य और संगठनात्मक खतरे के रूप में कमज़ोर हुआ है। 2010 में अपने चरम पर पहुँचने के बाद, 2021 तक हिंसा की घटनाओं में 77% की और संबंधित मौतों में 87% की कमी आई है। इसी तरह, नक्सल प्रभावित ज़िलों की संख्या भी 2010 में 96 से घटकर 2021 में 45 हो गई है। यह बताता है कि सरकार की दोहरी रणनीति ने सफलतापूर्वक इन क्षेत्रों में हिंसा को कम किया है और राज्य का नियंत्रण बढ़ाया है।

निरंतर चुनौतियाँ: विचारधारा, भर्ती और शासन

हिंसा में कमी के बावजूद, कुछ चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं। एक महत्वपूर्ण चुनौती यह है कि नई पीढ़ी के युवा अब माओवादी विचारधारा के प्रति उतने आकर्षित नहीं हैं, जितना पहले थे। हालाँकि यह एक सकारात्मक संकेत है, इसका मतलब यह नहीं है कि अंतर्निहित सामाजिक-आर्थिक मुद्दे, जैसे कि भूमि का विस्थापन और शोषण, समाप्त हो गए हैं। अगर इन मुद्दों को संबोधित नहीं किया गया, तो एक नए प्रकार का असंतोष सामने आ सकता है।

इसके अलावा, शहरी नक्सलवाद का खतरा अभी भी एक महत्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, ये शहरी नेटवर्क आंदोलन के लिए तार्किक और बौद्धिक समर्थन प्रदान करते रहते हैं। एक विशुद्ध रूप से ग्रामीण-केंद्रित सुरक्षा दृष्टिकोण इस खतरे का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त नहीं है।


समग्र भविष्य के लिए सिफारिशें

नक्सलवाद पर एक स्थायी और अंतिम जीत हासिल करने के लिए, केवल सैन्य दबाव बनाए रखना पर्याप्त नहीं होगा। भविष्य की रणनीति को तीन मुख्य स्तंभों पर आधारित होना चाहिए:

  1. सतत और लक्षित सुरक्षा अभियान: "SAMADHAN" जैसी खुफिया-आधारित और प्रौद्योगिकी-संचालित रणनीतियों को जारी रखना आवश्यक है ताकि बचे हुए नक्सलवादी नेतृत्व और बुनियादी ढाँचे को पूरी तरह से खत्म किया जा सके।

  2. त्वरित और समावेशी विकास: सरकार को विकास परियोजनाओं पर ज़ोर देना जारी रखना चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे सिर्फ़ बुनियादी ढाँचे तक सीमित न हों। भूमि अधिकारों, आदिवासी स्वायत्तता और वन संसाधनों के प्रबंधन से संबंधित मूल शिकायतों को सीधे तौर पर संबोधित किया जाना चाहिए।

  3. शासन और न्याय को मज़बूत करना: अंत में, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विश्वसनीय और प्रभावी शासन स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें प्रशासन में सार्वजनिक विश्वास का निर्माण करना, त्वरित और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करना, और उस भ्रष्टाचार और उदासीनता का मुकाबला करना शामिल है, जिसने शुरुआत में इस आंदोलन को पनपने दिया।

निष्कर्ष में, नक्सलवाद का सैन्य पतन एक बड़ी सफलता है, लेकिन स्थायी शांति के लिए एक सूक्ष्म समझ की आवश्यकता है। यह सैन्य संघर्ष का अंत तो है, पर उन सामाजिक-आर्थिक संघर्षों का अंत नहीं है जिन्होंने इसे जन्म दिया। दीर्घकालिक समाधान दुश्मन को हराने में नहीं, बल्कि उन व्यवस्थागत विफलताओं को ठीक करने में है जिन्होंने उस दुश्मन को उभरने का अवसर दिया।

Edited By: Samridh Desk
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सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।

'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।

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