स्वतंत्रता दिवस: 15 अगस्त के भूले-बिसरे नायक जिन्हें इतिहास ने भुला दिया, जानिए तिरंगे की डिजाइन की असली कहानी

तिरंगे की असली कहानी और वो नायक जिन्हें हम नहीं जानते

स्वतंत्रता दिवस: 15 अगस्त के भूले-बिसरे नायक जिन्हें इतिहास ने भुला दिया, जानिए तिरंगे की डिजाइन की असली कहानी
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समृद्ध डेस्क: जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं और गांधी, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं को याद करते हैं, तो कहीं न कहीं हमारे मन में ये सवाल उठता है कि क्या इतिहास की किताबों में सिर्फ यही नाम हैं? क्या और कोई वीर नहीं थे जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर देश की आजादी के लिए संघर्ष किया? सच तो ये है कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे अनेक भूले-बिसरे नायक हैं जिनकी वीरगाथाएं इतिहास के पन्नों में कहीं दब गई हैं। आज के इस आर्टिकल में हम उन्हीं गुमनाम वीरों की कहानी बताएंगे जिन्होंने देश की मिट्टी को अपने खून से सींचा लेकिन इतिहास की मुख्यधारा में उनका नाम कम ही सुनने को मिलता है। 


स्वतंत्रता संग्राम के छुपे हुए चेहरे

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी सिर्फ कुछ बड़े नेताओं की नहीं है, बल्कि ये एक ऐसी महागाथा है जिसमें देश के कोने-कोने से आए हजारों वीर सेनानियों का योगदान शामिल है। इन नायकों में राजा-महाराजा से लेकर साधारण किसान तक, स्त्री से लेकर पुरुष तक, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी शामिल थे। लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि समय के साथ-साथ इनमें से कई के नाम इतिहास की धूल में दब गए हैं।


तिरंगे के असली रचयिता: पिंगली वेंकैया

जब भी हम तिरंगा देखते हैं तो हमारा मन गर्व से भर जाता है, लेकिन क्या आपको पता है कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज के डिजाइनर कौन थे? पिंगली वेंकैया का नाम बहुत कम लोग जानते हैं। 2 अगस्त, 1876 को आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में जन्मे इस महान व्यक्ति ने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी से मुलाकात की और उनसे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। काकिनाडा कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने सुझाव दिया कि भारत का अपना एक ध्वज होना चाहिए। गांधीजी ने इस विचार का समर्थन किया और पिंगली वेंकैया से ही ध्वज का डिजाइन तैयार करने को कहा।

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के डिज़ाइनर पिंगली वेंकैया के सम्मान में 2009 में जारी भारतीय डाक टिकट (IS: Wikipedia)

इस तरह वो व्यक्ति जिसने हमारे राष्ट्रीय ध्वज को जन्म दिया, आज भी ज्यादातर लोगों के लिए अनजान है। यहां तक कि 4 जुलाई, 1963 को उनकी मृत्यु के समय तक उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे।

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80 साल की उम्र में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले वीर कुँवर सिंह

कहते हैं कि वीरता की कोई उम्र नहीं होती, और इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण हैं बिहार के वीर कुँवर सिंह। 13 नवंबर 1777 में जगदीशपुर में जन्मे कुँवर सिंह ने 80 साल की उम्र में भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके। 1857 के विद्रोह के समय जब पूरा देश अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उठ खड़ा हुआ, तो कुँवर सिंह ने बिहार में इस आंदोलन का नेतृत्व किया।

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27 अप्रैल 1857 को उन्होंने दानापुर के सिपाहियों के साथ मिलकर आरा पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों के लिए ये इतना बड़ा झटका था कि उन्हें इंग्लैंड से अतिरिक्त सेना मंगानी पड़ी। एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने लिखा था, "गनीमत रही कि उस समय कुंवर सिंह की उम्र 80 बरस के करीब थी। अगर वे उस समय जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही देश छोड़ भागना पड़ जाता"।

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सबसे प्रेरणादायक घटना तब हुई जब शिवपुरी घाट पर अंग्रेजों की गोली उनके हाथ में लगी। इस महान वीर ने अपनी तलवार से उस हाथ को काटकर गंगा मां को समर्पित कर दिया और फिर एक हाथ से ही लड़ते रहे। 26 अप्रैल 1858 को जब उनका निधन हुआ तो उन्होंने अपनी जन्मभूमि जगदीशपुर को आजाद करा लिया था।


ऊदा देवी पासी: सिकंदर बाग की वीरांगना

1857 के विद्रोह की सबसे प्रेरणादायक कहानियों में से एक है ऊदा देवी पासी की वीरगाथा। ये वो महिला थीं जिन्होंने अकेले दम पर 36 अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। ऊदा देवी नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्य थीं और बेगम हजरत महल की सुरक्षा में तैनात थीं।

जब चिनहट की लड़ाई में उनके पति मक्का पासी शहीद हो गए, तो ऊदा देवी ने बदला लेने की ठान ली। 16 नवंबर 1857 को जब ब्रिटिश जनरल कॉलिन कैंपबेल की सेना ने सिकंदर बाग को घेरा, तो ऊदा देवी ने पुरुष वेश धारण किया और एक पीपल के पेड़ पर चढ़कर निशानेबाजी शुरू की। उन्होंने इतनी सटीक निशानेबाजी की कि 36 अंग्रेज सैनिक मारे गए। जब अंग्रेजों को पता चला कि ये कोई महिला है तो वे हैरान रह गए। कैंपबेल ने उनकी वीरता को देखकर अपनी हैट उतारकर सलाम किया था।

 

ऊदा देवी पासी (फाइल फ़ोटो)

बेगम हजरत महल: अवध की शेरनी

1857 के भारतीय विद्रोह की एक प्रमुख महिला नेता, बेगम हज़रत महल का कलात्मक चित्र (IS: Siasat)

मजदूर परिवार में जन्मी मुहम्मदी खातून, जो बाद में बेगम हजरत महल के नाम से मशहूर हुई, एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने कभी हार नहीं मानी। जब अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया, तो बेगम ने अपने नाबालिग बेटे बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया।

बेगम हजरत महल की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि वे सभी धर्मों को समान मानती थीं। उनकी सेना में हिंदू, मुसलमान, सिख सभी थे। चिनहट की लड़ाई में उन्होंने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी थी। यहां तक कि नेपाल जाकर भी उन्होंने अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं किया। 1879 में नेपाल में ही उनका निधन हुआ लेकिन आखिरी सांस तक वे स्वतंत्रता की दीवानी रहीं।


मैडम भीकाजी कामा: विदेशी धरती पर तिरंगा फहराने वाली पहली महिला

मैडम भीकाजी कामा भारतीय ध्वज का प्रारंभिक संस्करण पकड़े हुए, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक विस्मृत नायक के रूप में अपनी भूमिका को उजागर करती हुई (फाइल फ़ोटो)

भारतीय क्रांति की माता कहलाने वाली मैडम भीकाजी कामा वो महान महिला थीं जिन्होंने 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में पहली बार विदेशी धरती पर भारत का झंडा फहराया। 24 सितंबर 1861 को बंबई में जन्मी भीकाजी ने लंदन में दादाभाई नौरोजी के साथ काम किया और पेरिस से 'वंदे मातरम्' पत्रिका का प्रकाशन किया।

उन्होंने न केवल भारत की आजादी के लिए विदेश में माहौल बनाया बल्कि वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों की भी भरपूर मदद की। उनकी सबसे बड़ी खासियत ये थी कि वे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज उठाती रहीं।


बिरसा मुंडा: मुंडा उलगुलान के नायक

बिरसा मुंडा (IS: Wikipedia)

झारखंड के रांची जिले के उलिहातू गांव में 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा ने आदिवासी समुदाय को अंग्रेजी शासन और जमींदारों के शोषण के खिलाफ संगठित किया। मात्र 25 साल की उम्र में 3 जून 1900 को जेल में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उन्होंने जो क्रांति का बीज बोया था वो आगे चलकर पूरे देश में फैला।

बिरसा मुंडा की सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि उन्होंने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी बल्कि अपने समुदाय में फैली कुरीतियों का भी विरोध किया। आज भी मुंडा समुदाय के लोग उन्हें भगवान मानकर पूजते हैं।


चापेकर बंधु: साहस और बलिदान की मिसाल

चाफेकर बंधु (IS: Wikipedia)

महाराष्ट्र के पुणे में जन्मे दामोदर, बालकृष्ण और विनायक चापेकर तीनों भाइयों ने 1897 में ब्रिटिश अधिकारी वाल्टर रैंड की हत्या करके अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी। प्लेग की वजह से मरने वाले लोगों के साथ रैंड का व्यवहार अमानवीय था, जिसके कारण इन वीर भाइयों ने उसे मौत के घाट उतारने का फैसला किया।

तीनों भाइयों को फांसी दे दी गई, लेकिन उनकी शहादत ने महाराष्ट्र में क्रांति की एक नई लहर चला दी। ये भाई भारतीय इतिहास के पहले आतंकवाद विरोधी क्रांतिकारी माने जाते हैं।


सूर्य सेन: मास्टर दा की वीरगाथा

सूर्य सेन (IS: Wikipedia)

चटगांव के सूर्य सेन, जिन्हें प्यार से मास्टर दा कहा जाता था, ने 18 अप्रैल 1930 को चटगांव शस्त्रागार पर छापा मारकर पूरे देश में तहलका मचा दिया था। उन्होंने न केवल शस्त्रागार पर कब्जा किया बल्कि जलालाबाद हिल पर ब्रिटिश सैनिकों से जमकर मुकाबला भी किया।

11 जनवरी 1934 को जब उन्हें फांसी दी गई तो पूरा बंगाल रो पड़ा था। मास्टर दा की शहादत ने कई युवाओं को क्रांति के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी।

सूर्य सेन 1978 भारत का डाक टिकट (IS: Wikipedia)
सेन को 10,000 टका के इनाम पर
वांछित किया गया था,
1932 में चटगांव के पुलिस प्रभाग के
महानिरीक्षक द्वारा वितरित पोस्टर। (फाइल फ़ोटो)
सूर्य सेन के बड़े भाई चंद्र कुमार सेन और
उनकी पत्नी, बिरजमोहिनी देवी, सूर्य सेन की भाभी (फाइल फ़ोटो)

पूर्वोत्तर के भूले हुए वीर

रानी गैडिंलू: नागा वीरांगना

रानी मा गाइदिन्ल्यू, भारतीय राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानी और जेलियांग्रोंग नागाओं की धार्मिक नेता (फाइल फ़ोटो)

णिपुर की रानी गैडिंलू मात्र 13 साल की उम्र में हेराका धार्मिक आंदोलन में शामिल हुई थीं। बाद में ये आंदोलन राजनीतिक रूप ले गया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का केंद्र बन गया। 16 साल की उम्र में गिरफ्तार होने के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई।

1937 में जब नेहरू जी उनसे मिलने गए तो उन्होंने उन्हें 'रानी' का खिताब दिया। 1947 में रिहा होने के बाद भी वे अपने समुदाय की सेवा करती रहीं। उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया।


मोजे रीबा: अरुणाचल प्रदेश के पहले तिरंगा फहराने वाले

मोजी रिबा (फाइल फ़ोटो)

अरुणाचल प्रदेश के मोजे रीबा वो वीर थे जिन्होंने 15 अगस्त 1947 को दीपा गांव में पहली बार तिरंगा फहराया था। गोपीनाथ बोरदोलोई के समर्थन में काम करते हुए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाया। 1974 में भारत सरकार ने उनके योगदान के लिए ताम्रपत्र प्रदान किया।

मोजी रिबा का अनसंग हीरो राज्य रजत पदक
(फाइल फ़ोटो)
Moji_Riba_being_awarded_Tamra_Patra
15 अगस्त 1972 को लाल किले, नई दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति वी.वी.
गिरि द्वारा मोजी रीबा को ताम्र पत्र प्रदान किए जाने की समाचार पत्र कटिंग (फाइल फ़ोटो)
Statue_of_Moji_Riba
अमृत उद्यान पार्क,
गुवाहाटी, असम में
मोजी रीबा की मूर्ति
(फाइल फ़ोटो)

 छुपे हुए सच: क्यों भुला दिए गए ये नायक?

इन सभी वीरों की कहानियां सुनने के बाद एक सवाल मन में उठता है कि आखिर क्यों ये नायक इतिहास की मुख्यधारा से गायब हो गए? इसके पीछे कई कारण हैं:

राजनीतिक कारण: स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में जो इतिहास लिखा गया, उसमें मुख्यतः उन्हीं नेताओं को प्रमुखता दी गई जो कांग्रेस से जुड़े थे। क्रांतिकारियों और क्षेत्रीय नेताओं को कम महत्व दिया गया।

सामाजिक पूर्वाग्रह: दलित, आदिवासी और महिला स्वतंत्रता सेनानियों को उस समय के सामाजिक ढांचे के कारण उतना सम्मान नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। ऊदा देवी पासी, बिरसा मुंडा जैसे वीरों का योगदान इसीलिए छुप गया।

क्षेत्रीय भाषा की समस्या: बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से केवल क्षेत्रीय भाषाओं में दर्ज हैं। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी या अंग्रेजी में इनका अनुवाद नहीं हुआ, जिससे ये कहानियां सीमित दायरे में रह गईं।

दस्तावेजीकरण की कमी: उस समय संचार और दस्तावेजीकरण के साधन सीमित थे। ग्रामीण इलाकों के कई वीरों की कहानियां लिखित रूप में दर्ज ही नहीं हुईं।

आधुनिक भारत में इन नायकों की प्रासंगिकता: आज के युग में इन भूले-बिसरे नायकों की कहानियां हमारे लिए कई मायनों में प्रासंगिक हैं:

राष्ट्रीय एकता की प्रेरणा: ये कहानियां बताती हैं कि स्वतंत्रता संग्राम सभी जातियों, धर्मों और क्षेत्रों के लोगों का साझा आंदोलन था। ऊदा देवी जैसी दलित महिला से लेकर कुँवर सिंह जैसे राजपूत राजा तक सभी एक ही लक्ष्य के लिए लड़े।

महिला सशक्तिकरण का संदेश: बेगम हजरत महल, रानी गैडिंलू, मैडम भीकाजी कामा जैसी वीरांगनाओं की कहानियां आज की महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। ये बताती हैं कि नेतृत्व में महिलाओं की भूमिका कोई नई बात नहीं है।

आदिवासी और दलित गौरव: बिरसा मुंडा और ऊदा देवी जैसे वीरों की कहानियां समाज के वंचित वर्गों के लिए गर्व की बात हैं। ये दिखाती हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में हर वर्ग का योगदान था।


निष्कर्ष: भूली हुई विरासत को संजोने की जरूरत

15 अगस्त के इस पावन अवसर पर जब हम आजादी के 78 साल पूरे होने का जश्न मना रहे हैं, तो हमें इन भूले-बिसरे नायकों को भी याद करना चाहिए। ये वीर हमारी स्वतंत्रता की कहानी के अभिन्न अंग हैं। इनकी कहानियों में छुपा हुआ सच ये है कि भारत की आजादी सिर्फ कुछ बड़े नेताओं की देन नहीं है, बल्कि हजारों नाम-अनाम वीरों के बलिदान का परिणाम है।

आज के युग में जब हम डिजिटल इंडिया और नई शिक्षा नीति की बात कर रहे हैं, तो हमें इन गुमनाम वीरों की कहानियों को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। हर राज्य के स्कूलों में अपने स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढ़ाना चाहिए। तभी आने वाली पीढ़ियां अपने असली नायकों को जान सकेंगी।

इन भूले-बिसरे नायकों की वीरगाथाएं हमें सिखाती हैं कि देशभक्ति कोई जाति, धर्म, या लिंग नहीं देखती। ये हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए गर्व की बात। आइए इस स्वतंत्रता दिवस पर हम संकल्प लें कि इन वीरों की कहानियों को भुलने नहीं देंगे और इनके सपनों के भारत का निर्माण करेंगे। क्योंकि जब तक हम अपने असली नायकों को नहीं पहचानेंगे, तब तक हमारा इतिहास अधूरा रहेगा और हमारी आजादी की कहानी भी अधूरी रहेगी।

यही है उस छुपे हुए सच की कहानी जो हर भारतीय को जानना चाहिए। ये नायक भले ही इतिहास की किताबों में कम जगह पा सके हों, लेकिन हमारे दिलों में इनकी जगह हमेशा बनी रहनी चाहिए।

 

Edited By: Sujit Sinha
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