Terror Funding और NIA vs Police: भारत की संवैधानिक जंग और जांच अधिकारों की लड़ाई
समझौते की तलाश: NIA और राज्य पुलिस के बीच जांच अधिकारों का विवाद
समृद्ध डेस्क: राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) और राज्य पुलिस के बीच चल रही यह खींचतान सिर्फ एक प्रशासनिक विवाद नहीं है। यह भारत की संविधानिक व्यवस्था, संघवाद के सिद्धांतों, और आतंकवाद से निपटने की रणनीति पर एक गहरा सवाल है। 26/11 मुंबई हमले के बाद 2008 में बनी NIA आज एक ऐसी केंद्रीय एजेंसी बन गई है जो राज्य सरकारों की सहमति के बिना भी किसी भी राज्य में जाकर जांच कर सकती है। लेकिन क्या यह संविधान की मूल भावना के अनुकूल है? क्या पुलिस एक राज्य का विषय होने के बावजूद भी केंद्र को इतनी व्यापक शक्तियां दी जा सकती हैं?
आतंकी फंडिंग की जटिल दुनिया में एजेंसियों की लड़ाई

NIA की जांच में पाया गया कि PFI के "977 व्यक्तियों की हिट लिस्ट" थी, जिसमें न्यायाधीश, कार्यकर्ता और RSS नेता शामिल थे. इस संगठन का उद्देश्य 2047 तक भारत को एक इस्लामिक गणराज्य बनाना था. लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या राज्य पुलिस इन मामलों की जांच नहीं कर सकती थी? क्या हर गंभीर मामले में केंद्रीय एजेंसी की जरूरत है?
संवैधानिक चुनौती: छत्तीसगढ़ का साहसिक कदम
2020 में छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने एक अभूतपूर्व कदम उठाया। राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में NIA Act, 2008 को असंविधानिक घोषित करने की मांग करते हुए याचिका दायर की. यह पहली बार था जब किसी राज्य ने NIA Act को चुनौती दी थी। छत्तीसगढ़ का तर्क था कि "पुलिस एक राज्य का विषय है" और संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 2 के अनुसार जांच का अधिकार राज्य पुलिस का है.
छत्तीसगढ़ सरकार ने अपनी याचिका में स्पष्ट रूप से कहा था कि "NIA Act राज्य की जांच शक्तियों को छीनता है और केंद्र को मनमानी और स्वेच्छाचारी शक्तियां प्रदान करता है". राज्य का यह भी तर्क था कि यह अधिनियम संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ है क्योंकि यह केंद्र सरकार को बिना राज्य की सहमति के राज्य में काम करने की शक्ति देता है.
पश्चिम बंगाल में विस्फोटक संघर्ष
2023 में पश्चिम बंगाल और NIA के बीच एक और गंभीर टकराव देखने को मिला। कलकत्ता हाईकोर्ट ने राम नवमी हिंसा के मामलों की जांच NIA को सौंपने का आदेश दिया था, जिसे पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. तृणमूल कांग्रेस सरकार का तर्क था कि इन मामलों में कोई "अनुसूचित अपराध" नहीं था और विस्फोटक पदार्थों का उपयोग विस्फोटक अधिनियम के अंतर्गत नहीं आता.
सुप्रीम कोर्ट ने अंततः पश्चिम बंगाल की अपील को खारिज कर दिया, लेकिन यह मामला राज्य और केंद्रीय एजेंसियों के बीच गहरे अविश्वास को दर्शाता है. पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारियों को NIA द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया जा रहा था, जिससे राज्य में और भी तनाव बढ़ गया था.
आतंकी फंडिंग के नए तरीके और जांच की चुनौतियां
कश्मीर में आतंकी फंडिंग के नए-नए तरीके सामने आ रहे हैं जो पारंपरिक जांच एजेंसियों के लिए चुनौती बन रहे हैं। 2025 में काउंटर इंटेलिजेंस कश्मीर (CIK) द्वारा की गई एक जांच में पता चला कि लश्कर-ए-तैयबा (LeT) के handlers पाकिस्तान से खाड़ी देशों में बैठे पाकिस्तानी नागरिकों के साथ मिलकर कश्मीर में फंडिंग कर रहे हैं.
इस नेटवर्क में तीर्थयात्रियों, व्यापारियों और प्रवासियों के रूप में couriers का इस्तेमाल किया जा रहा था। जांच में पाया गया कि शबीर अहमद भट नाम का व्यक्ति उमरा करने के दौरान सऊदी अरब में LeT के conduits से बड़ी मात्रा में सऊदी रियाल प्राप्त कर रहा था. यह पैसा वापस कश्मीर में भारतीय रुपयों में बदलकर सक्रिय आतंकवादियों और उनके परिवारों में बांटा जा रहा था
न्यायिक क्षेत्राधिकार की उलझन
NIA Act की जटिलताओं का एक और पहलू न्यायिक क्षेत्राधिकार से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले में स्पष्ट किया गया है कि जब राज्य पुलिस द्वारा जांच की जाती है, तो NIA Act की धारा 22 लागू होती है. इसका मतलब यह है कि यदि राज्य सरकार ने कोई विशेष न्यायालय नहीं बनाया है, तो सेशन कोर्ट का क्षेत्राधिकार होगा.
2023 में पश्चिम बंगाल के एक मामले में यह विवाद सामने आया था जहाँ राज्य पुलिस द्वारा जांच के बावजूद भी यह सवाल उठा कि कौन सा न्यायालय UAPA के तहत मामलों की सुनवाई कर सकता है. कलकत्ता हाईकोर्ट ने पहले सेशन कोर्ट की कार्यवाही को रद्द कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया.
केंद्र बनाम राज्य: संवैधानिक संतुलन का सवाल
भारत के संवैधानिक ढांचे में "पुलिस" राज्य सूची का विषय है, लेकिन NIA Act इस सिद्धांत को चुनौती देता है. विशेषज्ञों का मानना है कि Entry 93 of List I के तहत केंद्र को अपनी सूची के विषयों से संबंधित अपराधों पर कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन क्या इससे एक राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाना उचित है?
Human Rights Initiative की एक रिपोर्ट के अनुसार, "कानून मंत्रालय ने गृह मंत्रालय को सलाह दी थी कि 'पुलिस' एक राज्य का विषय है और इसके कार्यों को संसदीय कानून द्वारा किसी मौजूदा या नए केंद्रीय पुलिस बल को नहीं सौंपा जा सकता, सिवाय संविधान के अनुच्छेद 249 या 252 के तहत".
आतंकवाद से निपटने की दुविधा
NIA के समर्थक तर्क देते हैं कि आतंकवाद एक अंतर-राष्ट्रीय समस्या है जिसके लिए केंद्रीकृत जांच की आवश्यकता है। एजेंसी की स्थापना के बाद से 652 मामले दर्ज किए गए हैं और 95.54% की दोषसिद्धि दर हासिल की गई है. NIA ने 551 संपत्तियां जब्त की हैं जिनकी कुल कीमत 116.27 करोड़ रुपये है.
लेकिन आलोचक पूछते हैं कि क्या यह सफलता राज्यों की संवैधानिक शक्तियों का हनन करके आई है? क्या CBI की तरह राज्य की सहमति की व्यवस्था बेहतर नहीं होती? CBI को राज्य की सहमति के बिना जांच नहीं करनी पड़ती, जबकि NIA को यह छूट प्राप्त है.
भविष्य की चुनौतियां और समाधान
आने वाले समय में यह टकराव और भी तीव्र हो सकता है क्योंकि अधिक राज्य सरकारें अपने अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार दिख रही हैं। 2013 के झीरम घाटी नक्सल हमले के मामले में भी NIA और छत्तीसगढ़ पुलिस के बीच द्वितीय FIR को लेकर विवाद हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने NIA की अपील को खारिज कर दिया था.
समाधान के रूप में विशेषज्ञ सुझाते हैं कि:
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राज्य की सहमति की व्यवस्था को फिर से लागू किया जाए
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NIA की शक्तियों को और स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए
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Concurrent jurisdiction के बजाय cooperation model अपनाया जाए
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विशेष न्यायालयों की स्थापना में एकरूपता लाई जाए
निष्कर्ष: संविधान और सुरक्षा के बीच संतुलन
आतंकी फंडिंग और NIA बनाम राज्य पुलिस का यह संघर्ष भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की एक गंभीर परीक्षा है। एक तरफ राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौती है, दूसरी तरफ संघवाद के सिद्धांत हैं। इस संतुलन को बनाए रखना भारत के भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सवाल यह नहीं है कि आतंकवाद से लड़ना है या नहीं - यह निर्विवाद है। सवाल यह है कि क्या संविधान की मूल भावना को बनाए रखते हुए इस लड़ाई को लड़ा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की चुनौती अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, और इसका फैसला भारत की संवैधानिक व्यवस्था के भविष्य को दिशा देगा।
आने वाले समय में यह देखना होगा कि क्या केंद्र और राज्य एक समझौतावादी रास्ता निकाल सकते हैं, या फिर यह संघर्ष और भी तीव्र होकर भारत की संघीय व्यवस्था को चुनौती देता रहेगा।
सुजीत सिन्हा, 'समृद्ध झारखंड' की संपादकीय टीम के एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं, जहाँ वे "सीनियर टेक्निकल एडिटर" और "न्यूज़ सब-एडिटर" के रूप में कार्यरत हैं। सुजीत झारखण्ड के गिरिडीह के रहने वालें हैं।
'समृद्ध झारखंड' के लिए वे मुख्य रूप से राजनीतिक और वैज्ञानिक हलचलों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं और इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।
