Opinion: कट्टरपंथ से डरा न्याय, तुष्टीकरण में फंसा देश, ‘उदयपुर फाइल्स’ को रोकना सच्चाई का गला घोंटने जैसा
'द कश्मीर फाइल्स' और 'द केरल स्टोरी' जैसी फिल्मों पर भी यही तर्क
2022 में जब अहमदाबाद धमाकों में 49 आतंकियों को दोषी ठहराया गया, तब भी उनके बचाव में जमीयत के वकील कोर्ट में मौजूद थे. यह कहकर कि सभी को न्याय मिलना चाहिए, यह संस्था वर्षों से उन चेहरों को कानूनी सुरक्षा देती रही है, जिन पर दर्जनों लाशों का खून चिपका है.
‘उदयपुर फाइल्स’ पर दिल्ली हाईकोर्ट की रोक ने एक बार फिर भारत की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था की रीढ़ पर सवाल खड़ा कर दिया है. यह फिल्म 28 जून 2022 को राजस्थान के उदयपुर में दर्जी कन्हैयालाल तेली की नृशंस हत्या पर आधारित है. एक दर्जी की हत्या, जो केवल एक कथित सोशल मीडिया पोस्ट के कारण हुई, और वह पोस्ट भी उसका नहीं था उसका 8 वर्षीय बेटा गलती से उसे फॉरवर्ड कर बैठा था. इस पूरी त्रासदी को तीन साल हो गए, लेकिन इंसाफ अब तक अटका हुआ है. वहीं, उस पर बनी फिल्म को कोर्ट ने तीन दिन में रोक दिया. क्या यह विरोधाभास नहीं है? फिल्म को सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिली थी. 150 से अधिक कट्स लगाए गए. धार्मिक स्थलों और संगठनों के नाम हटाए गए, नूपुर शर्मा का नाम हटाया गया. पूरी कोशिश की गई कि किसी समुदाय को आहत न किया जाए, फिर भी विरोध हुआ. और विरोध भी किसी आम व्यक्ति ने नहीं, बल्कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद नाम की उस संस्था ने किया जिसकी पृष्ठभूमि खुद विवादों से भरी पड़ी है. कोर्ट ने ट्रेलर और याचिका के आधार पर फिल्म पर अंतरिम रोक लगा दी और केंद्र से रिपोर्ट मांग ली.

कन्हैयालाल की हत्या का जो वीडियो सामने आया था, वह किसी भी सभ्य समाज की आत्मा को झकझोरने के लिए काफी था. दो युवक रियाज़ अत्तारी और गौस मोहम्मद उसकी दुकान में ग्राहक बनकर दाखिल होते हैं और धारदार हथियार से उसका गला रेत देते हैं. न सिर्फ यह कृत्य किया गया, बल्कि उसका प्रचार भी किया गया. वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड किया गया और घोषणा की गई कि यह हत्या "नबी के अपमान" के जवाब में की गई है. यह वही कट्टरपंथी विमर्श था जो सर तन से जुदा के नारे लगवाता है. इसके बावजूद, यह मुकदमा आज भी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंचा है.
और इसी के समानांतर, ‘उदयपुर फाइल्स’ नाम की एक फिल्म जो उस कट्टर सोच की परतें उधेड़ना चाहती है, वह अदालत के आदेश पर रुक जाती है. न्यायिक व्यवस्था की यह दोगली प्राथमिकता स्पष्ट है एक ओर खून का वीडियो सार्वजनिक है, आरोपी जेल में हैं, सबूत पुख्ता हैं, लेकिन फैसला नहीं; दूसरी ओर, एक फिल्म जो केवल सवाल उठाती है, उसे तीन दिन में प्रतिबंधित कर दिया जाता है. राजनीतिक दलों की चुप्पी और भी शर्मनाक है. जो दल हर मौके पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के झंडे लेकर सड़कों पर उतरते हैं कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, वामपंथी खेमे उनकी तरफ से इस फिल्म पर न कोई प्रतिक्रिया, न कोई बयान आया. क्या इसलिए कि कन्हैयालाल हिंदू थे? या इसलिए कि यह मामला किसी विशेष वर्ग को ‘असहज’ कर सकता है? या इसलिए कि यह मुद्दा भाजपा के नैरेटिव को बल दे सकता है? वजह चाहे जो हो, यह चुप्पी देश के राजनीतिक विमर्श की रीढ़ तोड़ देती है.
