Opinion: सामाजिक समरसता और जातीय टकराव के बीच बंटी राजनीति
भारतीय समाज ऐतिहासिक रूप से जातियों में विभाजित
एक भारत, श्रेष्ठ भारत की अवधारणा को साकार करता है. मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि विपक्षी दलों की राजनीति केवल विभाजन, तुष्टीकरण और जातिगत समीकरणों पर टिकी है, जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में गहरी चिंता व्यक्त की कि किस प्रकार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हिन्दू समाज को एकजुट करने के प्रयासों के विपरीत, कुछ गैर-भाजपा राजनीतिक दल और उनके समर्थक तत्व योजनाबद्ध ढंग से हिन्दू समाज को जातियों के नाम पर बांटने का षड्यंत्र रच रहे हैं. उन्होंने इसे एक गैर-राजनैतिक साजिश की संज्ञा दी और कहा कि यह केवल सत्ता की राजनीति नहीं बल्कि सनातन संस्कृति, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता पर सीधा हमला है. योगी का यह बयान उस समय आया जब कथावाचक मुकुट मणि यादव का विवाद सुर्खियां बटोर रहा था. दरअसल, मुकुटमणि यादव ने हाल ही में एक धार्मिक आयोजन के दौरान विवादित बयान दिया था जिसको लेकर हंगामा शुरू हो गया, जिसमें उन्होंने (मुकुटमणि यादव) कुछ ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भों पर टिप्पणी की थी. इस बयान को लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मच गया और देखते ही देखते यह मामला राजनीतिक रंग लेने लगा. शुरुआत में तो यह एक धार्मिक और सामाजिक बहस का मुद्दा था, लेकिन जल्द ही विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने इसे अपने-अपने तरीके से भुनाना शुरू कर दिया. समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं ने मुकुट मणि यादव के समर्थन में बयान देते हुए इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा बताया. उनका कहना था कि यादव ने जो कहा, वह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है और इसमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी. वहीं, अन्य पार्टियों के नेताओं ने इसे सीधे-सीधे समाज में जहर घोलने वाला बयान करार दिया. कुछ नेताओं ने मुकुट मणि यादव को सांप्रदायिक बताते हुए उन पर कानूनी कार्रवाई की मांग की.

इस सन्दर्भ में, उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि किस प्रकार कुछ राजनीतिक संगठन चुनाव आते ही पिछड़ी, दलित या सवर्ण जातियों के नाम पर भावनात्मक भाषण देते हैं, रैलियों में जातिगत नारे लगवाते हैं, और जाति-विशेष के मसीहा बनने का प्रयास करते हैं. योगी ने सवाल उठाया कि जो लोग सालों से सत्ता में रहे, उन्होंने कभी गरीबों के घर बिजली, पानी, शिक्षा या स्वास्थ्य क्यों नहीं पहुँचाया? क्यों उन्होंने जातियों के नाम पर केवल वोट मांगे और सत्ता में आते ही अपनी व्यक्तिगत समृद्धि सुनिश्चित की? कई राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों ने भी इस विषय पर अपनी प्रतिक्रियाएं दीं. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. संजीव त्रिपाठी ने कहा, यह स्पष्ट है कि भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति अब केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक समरसता की ओर बढ़ रही है. इससे विपक्षी दलों के पारंपरिक जातिगत समीकरण कमजोर हो रहे हैं, इसलिए वे बौखलाहट में पुनः जातिगत ध्रुवीकरण की ओर जा रहे हैं.
इसी प्रकार लखनऊ विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉ. रूचि श्रीवास्तव का कहना है, भारतीय समाज ऐतिहासिक रूप से जातियों में विभाजित रहा है, लेकिन स्वतंत्रता के बाद से अब तक जाति को केवल वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया गया. यदि अब कोई नेता इसे समरसता में बदलने की बात करता है, तो उसका विरोध केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि इससे कुछ लोगों की राजनीति संकट में पड़ सकती है.
एक प्रसिद्ध लेखक और सामाजिक चिन्तक डॉ. नरेश मालवीय ने टिप्पणी करते हुए कहा, वास्तव में यह एक बड़ा नैरेटिव युद्ध है. भाजपा हिन्दुओं को एक समरूप सांस्कृतिक पहचान के माध्यम से एक मंच पर लाना चाहती है, जबकि विपक्ष इसे सामाजिक विविधता के नाम पर तोड़ना चाहता है. लेकिन यह विविधता तब तक उपयोगी नहीं जब तक वह समाज को जोड़ती है, न कि बाँटती है.
गौरतलब हो हाल ही में कुछ विपक्षी नेताओं द्वारा पिछड़े और दलित समुदायों के नाम पर अलग-अलग सम्मेलन आयोजित किए गए, जिसमें देखा गया कि किस प्रकार जातिगत पहचान को फिर से मुखर किया जा रहा है. मुख्यमंत्री योगी ने इसे राजनैतिक मुनाफाखोरी का कुत्सित प्रयास बताया और कहा कि अब समय है कि जनता इस षड्यंत्र को पहचानें और समरस समाज के निर्माण में सहयोग दें.
इस पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2024 के आम चुनावों में भाजपा ने जिस प्रकार सबका साथ, सबका विकास के नारे को विस्तार देकर सबका प्रयास की ओर ले जाया गया, वह उनके समावेशी दृष्टिकोण को दर्शाता है. इसके मुकाबले, विपक्ष की रणनीति जातिगत गणनाओं और संख्यात्मक समीकरणों पर आधारित दिखती है, जो आज के समय में युवाओं और शहरी मध्यम वर्ग को बहुत आकर्षित नहीं कर पा रही. जहाँ एक ओर भाजपा अपने कार्यक्रमों में समाज के सभी वर्गों को शामिल करने का प्रयास कर रही है, वहीं विपक्ष के जाति आधारित सम्मेलन यह संदेश देते हैं कि वे अभी भी सामाजिक एकता की बजाय विखंडन की राजनीति पर भरोसा कर रहे हैं. यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ की चिंता केवल राजनैतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर भी विचारणीय है. ऐसे में यह साफ तौर पर कहा जा सकता है है कि आने वाले समय में भारतीय राजनीति केवल चुनावी आंकड़ों की नहीं, बल्कि विचारधारात्मक संघर्ष की होगी, जहाँ एक ओर सनातन समरसता की बात होगी और दूसरी ओर जातीय टकराव की राजनीति.
अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
मो-9335566111
