Opinion: अखिलेश को बड़ा झटका देने की तैयारी में ब्राह्मण समाज
ब्राह्मणों की नाराजगी सपा को 2027 के चुनाव में पड़ सकती है भारी
आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी का यह नया कार्यालय 2027 के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर बनाया गया है. अखिलेश ने इसे पीडीए भवन नाम देकर अपनी रणनीति को स्पष्ट कर दिया. पीडीए, यानी पिछड़ा, दलित, और अल्पसंख्यक सपा की राजनीतिक रणनीति का आधार रहा है
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश का एक ऐसा जिला जो समाजवादी पार्टी (सपा) (Samajwadi Party) का गढ़ माना जाता है, 3 जुलाई 2025 को एक बार फिर सुर्खियों में था. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने नए आवास और पार्टी कार्यालय, जिसे उन्होंने पीडीए भवन नाम दिया, का उद्घाटन और गृह प्रवेश किया. यह भवन अनवरगंज में 72 बिस्वा जमीन पर बना है, जिसमें अखिलेश का निजी निवास, पार्टी कार्यालय, और समर्थकों के लिए एक बड़ा हॉल शामिल है. लेकिन इस भव्य आयोजन के बीच एक सवाल ने सबका ध्यान खींचा अखिलेश ने गृह प्रवेश की पूजा के लिए काशी के ब्राह्मण विद्वानों को आमंत्रित करने की कोशिश की, लेकिन पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) समुदाय के किसी विद्वान को क्यों नहीं बुलाया? यह सवाल न केवल सियासी गलियारों में, बल्कि सोशल मीडिया और स्थानीय जनता के बीच भी चर्चा का विषय बन गया. बात ब्राह्मण समाज की नाराजगी की कि जाये तो ब्राह्मण सभा ने सपा कार्यालय और आवास के गृह प्रवेश के लिये गये ब्राह्मणों को अपने समाज से निकाल दिया है. ब्राह्मणों की यह नाराजगी सपा को 2027 के चुनाव में भारी पड़ सकती है, यूपी में करीब 10 प्रतिशत ब्राह्मण हैं.

लेकिन इस आयोजन की चमक उस समय फीकी पड़ गई, जब यह खबर आई कि अखिलेश ने गृह प्रवेश की पूजा के लिए काशी के ब्राह्मण विद्वानों को बुलाने की इच्छा जताई थी, लेकिन वे नहीं आए. सूत्रों के अनुसार, काशी के पंडितों ने इटावा में हाल ही में हुए एक विवाद, जिसे 'इटावा कथावाचक कांड' कहा जा रहा है, के कारण नाराजगी जताते हुए पूजा कराने से मना कर दिया. इस कांड में अखिलेश के कुछ बयानों को ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ माना गया था, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर दान-दक्षिणा और पूजा-पाठ की परंपराओं पर सवाल उठाए थे.
अखिलेश ने अंततः स्थानीय पंडितों से पूजा करवाई, और कुछ स्रोतों के अनुसार, पुजारी चंदन कुशवाहा ने इस कार्य को संपन्न किया. लेकिन सवाल यह उठता है कि पीडीए भवन के उद्घाटन जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर, जब अखिलेश अपनी पीडीए रणनीति को और मजबूत करने की बात कर रहे थे, तब उन्होंने पीडीए समुदाय के किसी विद्वान को पूजा के लिए क्यों नहीं चुना? यह सवाल न केवल उनके विरोधियों, बल्कि उनके समर्थकों के बीच भी चर्चा का विषय बन गया. सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इसे अखिलेश की रणनीति में विरोधाभास बताया. एक यूजर ने लिखा, "भवन का नाम तो रख दिया, लेकिन पूजा ब्राह्मणों से ही करवानी है. क्या पीडीए में कोई विद्वान नहीं था?" एक अन्य यूजर ने तंज कसते हुए कहा, "अखिलेश जी को कोई पीडीए का पंडित नहीं मिला क्या? कथनी और करनी में अंतर साफ दिखता है." इन टिप्पणियों ने सपा के पीडीए फार्मूले पर सवाल उठाए, जिसे अखिलेश ने हाल के वर्षों में अपनी पार्टी की छवि को यादव-मुस्लिम से हटाकर व्यापक बनाने के लिए अपनाया था.
आजमगढ़ में पूजा के लिए ब्राह्मण विद्वानों को बुलाने की कोशिश को भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है. अखिलेश शायद यह संदेश देना चाहते थे कि उनकी पार्टी सभी समुदायों को साथ लेकर चल रही है. लेकिन काशी के पंडितों की अनुपस्थिति और स्थानीय पंडितों द्वारा पूजा करवाने ने इस संदेश को कमजोर कर दिया. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश का यह कदम उनकी पीडीए रणनीति को मजबूत करने का प्रयास था, लेकिन यह उल्टा पड़ गया.
इस आयोजन को और चर्चा में लाने वाला एक अन्य पहलू था ब्राह्मण महासभा और विश्व हिंदू महासंघ के सदस्यों का विरोध. कुछ प्रदर्शनकारियों ने अखिलेश के खिलाफ काले झंडे लहराए और उन पर ब्राह्मण समुदाय की छवि खराब करने का आरोप लगाया. इसके अलावा, एक सुरक्षा चूक ने भी सुर्खियां बटोरीं, जब एक युवक बैरिकेडिंग तोड़कर मंच के करीब पहुंच गया. पुलिस ने उसे तुरंत हिरासत में लिया, लेकिन इस घटना ने अखिलेश की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए.
इन विवादों के बावजूद, पीडीए भवन का उद्घाटन समाजवादी पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है. यह भवन न केवल अखिलेश का दूसरा घर है, बल्कि पूर्वांचल में सपा की सियासी रणनीति का केंद्र भी बनेगा. अखिलेश ने अपने भाषण में बीजेपी पर जमकर हमला बोला और पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का श्रेय अपनी सरकार को दिया. उन्होंने कहा, लखनऊ से आजमगढ़ पहुंचने में उतना ही समय लगता है, जितना सैफई. यह हमारे द्वारा बनाए गए एक्सप्रेसवे की बदौलत है.
बहरहाल, आजमगढ़ में पीडीए भवन का उद्घाटन और गृह प्रवेश एक सियासी मास्टरस्ट्रोक हो सकता था, लेकिन ब्राह्मण विद्वानों की अनुपस्थिति और पीडीए समुदाय के विद्वानों को न बुलाने का फैसला सवालों के घेरे में आ गया. जहां वे एक तरफ अपने मूल समर्थक वर्ग को मजबूत करना चाहते हैं, तो दूसरी तरफ सवर्ण वोटरों को भी साधने की कोशिश कर रहे हैं. 2027 के चुनावों में यह रणनीति कितनी कारगर होगी, यह तो समय ही बताएगा.
