सामाजिक समरसता: बाबा साहब और बदलता राजनीतिक परिदृश्य
आज के भारत में अम्बेडकर की विचारधारा का बढ़ता प्रभाव
इस लेख में बाबा साहब अम्बेडकर की सोच, सामाजिक समरसता, आज की राजनीति में उनकी भूमिका और समाज की कुंठाओं से निकलकर सकारात्मक समाधान की ओर बढ़ने की आवश्यकता पर चर्चा की गई है।
आज भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब अमेडकर की पुण्यतिथि है, जिसे महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में हम मनाते हैं और वास्तव में ऐसा कर हम उस महान व्यक्तित्व को सहृदय सम्मान व श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। अब तो भारतीय राजनीति का परिदृश्य ही बदल गया है। आज महात्मा गाँधी की लाठी थोड़ी कमजोर पड़ती जा रही और बाबा साहब की सोच, बाबा साहब का मूर्त स्वरूप सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक चेतना की धूरी बन गई है।चाहे कोई भी संस्था हो या राजनीतिक दल, बाबा साहब की चर्चा किए बिना नहीं रह सकते। यह तो हुई वोट बैंक की राजनीति। परंतु सामाजिक समरसता, सामाजिक सरोकार, सामाजिक एकजुटता, सामूहिक चेतना और जन आंदोलनों आदि में बाबा साहब की उपादेयता वैश्विक स्तर पर मान्य है।

मैं जो आज कहने जा रहा हूँ पता नहीं मुझे कहना चाहिए या नहीं, हमारे मन में एक दुविधा है। हमारे मन में दलित, वनवासी और पिछड़े समाज के लोगों में बरसों से उन पर हुए उत्पीड़न को लेकर कुंठाएं हैं। लेकिन हमारे सामने सवाल है कि आखिर इन कुंठाओं में हम कब तक पड़े रहेंगे और इसमें हमारा भविष्य क्या है? उन परम्परागत कहानियों को बताकर हम प्राय: अपने भाषणों को लम्बा खींचने की कोशिश तो कर सकते हैं, परंतु परिवर्तन नहीं ला सकते। मेरा मानना है कि इन बातों को हमें कुरेद कर हरा करने की बजाय सिर्फ और सिर्फ इनके समाधान के लिए व्यवस्थित योजना बनाने की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पिछले जीवन में क्या घटनाएँ हुई? कौन कहाँ प्रताड़ित हुआ? इन जख्मों को कुरेद कर नासूर बनाए रखने की अब क्या आवश्यकता है? अब जमाना बदल गया है, नई सोच विकसित हुई है। अपनी बेहतरी के लिए हमें कुंठाएं छोड़कर रचनात्मक और सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए। सामाजिक समरसता लाने में महज दलितों का ही नहीं, वरन समाज के सभी वर्गों का शिक्षित होना जरूरी है। शिक्षा सबके लिए जरूरी है, ऐसा बाबा साहब अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था। बाबा साहब अम्बेडकर दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिनके चरित्र पर आज तक कोई लांछन नहीं लगा है। उनका जीवन सदैव निष्कलंकित रहा है।
बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक शूद्र कौन हैं में लिखा है कि शूद्र पहले सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। जिस समाज को आज हम वंचित समाज कहते हैं वह कभी मुख्यधारा का समाज था। कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि मुख्यधारा का समाज वंचित समाज हो गया। तथ्यों के आधार पर यह बात बाबा साहब ने बताया है कि शूद्रों के गौत्र कई सवर्ण जातियों के गौत्र के ही समान हैं। मीडिया सहित हम समस्त कार्यकर्ताओं को इस तरह के तथ्यों को समाज के सामने लाने में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, ताकि आज जिसे हम वंचित समाज कह रहे हैं, उसमें स्वाभिमान का भाव जाग्रत हो और अपने को समाज में बराबरी के भाव के साथ रहने का माद्दा रख सके। वंचित समाज के संबंध में अन्य समाज की धारणा भी बदले। हमें अगड़ी व पिछड़ी के बीच की दूरियाँ मिटाने की आवश्यकता है। अक्सर हम चर्चा करते हैं कि बाबा साहब को समाज ने तिरस्कृत किया। इससे कटुता बढ़ सकती है। इस बात को हम क्यों दबे जुबान में कहते हैं कि उनकी ब्राह्मणी पत्नी का भी योगदान है। इस तरह यदि हम अपने भाषणों में उत्पीड़न को दर्शाते हैं तो उनके उत्प्रेरक को क्यों गौण कर देते हैं? यह तो हम कहीं न कहीं वामपंथी धारणा की ही बातों को फैलाकर खाई को बढ़ाने का काम करते हैं। यदि दोनों पक्षों को दर्शाने की कोशिश की जाए तो मुझे लगता है कि हम अपनी योजना में अवश्य सफल होंगे और फिर सामाजिक समरसता स्थापित करने से हमें कोई नहीं रोक सकता।

आलेख : संजय कुमार धीरज
{लेखक एक शिक्षाविद हैं और यह उनका व्यक्तिगत विचार है।}
