आरके सिन्हा का आलेख : मत बांटों सेना को प्रांत या मजहब के नाम पर

आरके सिन्हा का आलेख : मत बांटों सेना को प्रांत या मजहब के नाम पर

आरके सिन्हा

भारत-चीन के बीच हालिया निहत्थे संघर्ष में हमारे शूरवीरों ने दुश्मन सेना की कमर तोड़ी। उनके पराक्रम को पूरी दुनिया ने देखा। लद्दाख की गलवान घाटी में तक़रीबन 14 हजार फुट की ऊंचाई पर हुए संघर्ष में शहीद हुए भारतीय फ़ौजी बिहार रेजिमेंट के 16वीं बटालियन के थे। उनमें से ज्यादातर बिहार और झारखण्ड से थे। पर वे सभी देश की सीमाओं की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। पर देखने में यह आ रहा है कि कुछ संकुचित मानसिकता के लोग बिहार रेजिमेंट का मतलब बिहार समझ रहे हैं।

उन शूरवीरों पर तो सारे भारतवासियों को गर्व है। शहीद हुए योद्धा तो वैसे भी देश के अलग-अलग राज्यों से थे। बिहार रेजीमेंट को जो लोग बिहार से जोड़ रहे हैं, वे भारतीय सेना के अखिल भारतीय चरित्र के साथ घोर अन्याय कर रहे हैं। भारतीय सेना को धर्म,जातिया प्रांत से बांटने वालों को करारा जवाब देने की जरूरत है। इन्हें कौन बताए कि बिहार रेजीमेंट में सिर्फ बिहारी नहीं होते है? यह बात हरेक उस शख्स को पता है जिसे सेना के चरित्र की थोड़ी बहुत भी समझ है। सरहद पर तमिल या बिहारी नहीं, हिन्दुस्तानी लड़ते हैं। उन्हें पंजाबी, बिहारी या बंगाली आदि में मत बांटिए।

जो लोग बिहार रेजीमेंट को सिर्फ बिहार प्रांत का रेजीमेंट बता रहे हैं, उन्हें पता चल गया होगा कि लद्दाख में उसी रेजीमेंट के कमांडिंग अफ़सर कर्नल बी संतोष बाबू तेलंगाना के सूर्यापेट के रहने वाले थे। वे भी तो शहीद हुए। चीन को मारते-मारते मरने वालों में बी. संतोष बाबू के अलावा सूबेदार एन सोरेन, मयूरभंज (उड़ीशा), सूबेदार मनदीप सिंह, पटियाला (पंजाब), हवलदार के पलानी, मदुरै (तमिलनाडु), हवलदार सुनील कुमार, पटना (बिहार), हवलदार बिपुल रॉय, मेरठ सिटी (उत्तर प्रदेश), सूबेदार सतनाम सिंह, गुरदासपुर (पंजाब), दीपक कुमार, रीवां (मध्य प्रदेश), सिपाही कुंदन कुमार ओझा, साहिबगंज (झारखंड), सिपाही राजेश ओरंग बीरभूम (पश्चिम बंगाल), सिपाही गणेश राम, कांकेर (छत्तीसगढ), चंद्रकांत प्रधान, कंधमाल (उड़ीशा), सिपाही अंकुश, हमीरपुर (उत्तर प्रदेश), सिपाही गुरबिंदर, संगरूर (पंजाब), सिपाही गुरतेज सिंह, मनसा (पंजाब), सिपाही चंदन कुमार, भोजपुर (बिहार), सिपाही अमन कुमार, समस्तीपुर (बिहार), सिपाही जयकिशोर सिंह, वैशाली, (बिहार) वगैरह शामिल थे। अब आप समझ लें कि बिहार रेजीमेंट में बिहार के साथ-साथ पंजाब, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना वगैरह से भी जवान थे। वैसे बिहार रेजिमेंटल सेंटर पटना के पास दानापुर में हैं, अत: ज्यादातर जवान तो बिहार और झारखण्ड के ही होते हैं। अफसर तो कहीं के भी होते हैं ।

इन तथ्यों के बाद यह कहना कितना सही है कि बिहार रेजीमेंट में सब बिहारी थे। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि जाट रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट या किसी अन्य रेजीमेंट में देश के किसी भी भाग का जवान हो सकता है।

अगर हम पीछे मुढ़कर देखें तो बिहार रेजिमेंट का गठन सन 1941 में अंग्रेजों ने किया था। इसका गठन 11वीं (टेरिटोरियल) बटालियन और 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट को नियमित करके और नई बटालियनों का गठन करके किया गया था। यह भारतीय सेना की सबसे पुरानी पैदल सेना रेजिमेंटों में से एक है।

भारतीय सेना के बिहार से संबंध रखने वाले सबसे बड़े योद्धा और समर नीति के जानकार परम विशिष्ट सेवा मेडल लेफ्टिनेन्ट जनरल (अवकाश प्राप्त) श्रीनिवास कुमार सिन्हा को माना जा सकता है। वे असम, जम्मू और कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल भी रहे। उनका जन्म बिहार के गया में हुआ था। वे वर्ष 1943 में सेना में शामिल हुए और उन्हें गोरखा रेजिमेंट में पदस्थापित किया गया था। जब पाकिस्तानी कबायलियों ने वर्ष 1947 में हमला किया तो जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने वाले भारतीय सैनिकों के पहले जत्थे में वह भी शामिल थे। जब इन्दिरा सरकार ने 1983 में उनकी वरिष्ठता को नजरअंदाज कर उनकी जगह जनरल अरुण श्रीधर वैद्य को भारतीय सेना का प्रमुख नियुक्त किया तो उन्होंने सेना से इस्तीफा दे दिया था।

वे वर्ष 1990 में नेपाल में भारत के राजदूत नियुक्त हुए। इन्होंने पांच पुस्तकों का लेखन किया जिसमें से ‘ए सोल्जर रिकाल्स’ नामक आत्मकथा इनकी प्रमुख पुस्तक है। वे बिहार रेजीमेंट से नहीं बल्कि गोरखा रेजीमेंट से थे। सेना को किसी प्रदेश से जोड़ने वालों के लिए दो उदाहरण और देना चाहता हूं। पहला सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ का। उनकी सरपरस्ती में भारतीय सेना ने सन् 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय प्राप्त की थी जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश बना। एक पारसी परिवार में उनका जन्म अमृतसर में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया था। मानेकशॉ ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में पाई, बाद में वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए। वे भी गोरखा रेजीमेंट में ही शामिल किये गए थे। जेनरल फर्दुन बिलीमोरिया भी हैदराबाद के पारसी परिवार के ही थे और गोरखा रेजिमेंट के ही अधिकारी थे।

1971 के युद्ध के महानायकों में लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर जैकब भी थे। वे यहूदी थे। वे पूर्वी पाकिस्तन (अब बांग्लादेश) में अन्दर घुसकर पाकिस्तानी फौजों पर भयानक आक्रमण करवाने वाले जेनरल जैकब उस समय इस्टर्न कमांड के चीफ आफ स्टाफ थे। उनके युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि नब्बे हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष आत्म समर्पण किया था जो कि अभी तक का विश्व भर का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण है। जैकब साहब यहूदी थे। इसी तरह से पूर्व सेनाध्यक्ष जे.जे.सिंह मराठा रेजीमेंट से थे।

क्या इन तमाम उदाहरणों के बाद शीशे की तरह से साफ नहीं हो जाता है कि भारतीय सेना पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष और क्षेत्रवाद से ऊपर है। सेना से जुड़ा हरेक शख्स देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सदैव तैयार रहता है। देखिए देश के सामने से अभी चीन की चुनौती समाप्त नहीं हुई है। अभी तो शुरुआत ही जानिये। भारत-चीन सरहद पर दोनों देशों के फौजें तैनात हैं। अभी पूरे देश को चौकन्ना रहना है। अभी उन ताकतों का भी जवाब देना है जो देश को किसी न किसी रूप में कमजोर करने की चेष्टा करने से बाज नहीं आते।

यह तो हम युद्ध जैसे हालातों में देख रहे हैं। आपको याद होगा कि कन्हैया कुमार और अरुंधति राय जैसे सिरफिरे कथित लिबरल सेना पर भयानक आरोप लगाते रहे हैं। हालांकि इनके ओछे आरोपों को कभी किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। कहने दें कि इस तरह की अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ भारत जैसे महान प्रजातंत्र में ही मिलती है। दरअसल भारतीय सेना अपने आप में ही लघु भारत है। इसमें हिन्दू,मुसलमान,सिख,ईसाई सब हैं। सबने अपने खून से भारत की सरहदों की रक्षा की है। यह जज्बा ही भारतीय सेना को संसार की सर्वश्रेष्ठ सेना बनाता है।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

Edited By: Samridh Jharkhand

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