
पतरातू में निर्माणाधीन पॉवर प्लांट, जो एनटीपीसी व जेबीवीएनएल का संयुक्त उपक्रम है।
राहुल सिंह
खनन, ऊर्जा व औद्योगिक इकइायों से घिरा बलकुदरा रांची-भुरकुंडा रोड पर स्थित भारत के लाखों अन्य गांवों की तरह एक सामान्य गांव नहीं है। यह गांव रांची से तकरीबन 50 किमी और रामगढ से 22 किमी की दूरी पर है। यह संसाधनों और संभावनाओं से भरा-पूरा भूभाग रहा है और इसलिए इसका दोहन भी खूब किया गया है, लेकिन इसका लाभ इस गांव को कितना मिला, यह विकास के नए मानक तय करने वालों के लिए एक दीगर सवाल है। बलकुदरा के मुखिया विजय मुंडा बातचीत की शुरुआत में ही कहते हैं – आजादी के पहले से लेकर अबतक बलकुदरा कई बार विस्थापित हो चुका है। आदिवासी समुदाय से आने वाले विजय के अनुसार, विभिन्न खनन, ऊर्जा और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए उनके गांव की जमीन दशकों से समय-समय पर अधिग्रहित की जाती रही है, लेकिन इससे उनके गांव के लोगों की आर्थिक दशा नहीं बदली, बल्कि उन्हें अपनी जमीन गंवानी पड़ी और औद्योगिक प्रदूषण, विस्थापन और पलायन झेलना पड़ रहा है। अलबत्ता जिन परिवारों के लोग कुछ दशक पूर्व तक स्थायी नौकरी में थे, वे अब दिहाड़ी श्रमिक बन गए हैं।

बलकुदरा झारखंड के रामगढ जिले के पतरातू में एनटीपीसी के भारत में बन रहे सबसे बड़े पॉवर प्लांट में एक के करीब है। इस पॉवर प्लांट का काम तेजी से चल रहा है और यह 4000 मेगावाट की क्षमता का होगा। यह भारत सरकार के उपक्रम और झारखंड सरकार के उपक्रम झारखंड बिजली वितरण निगम लिमिटेड का संयुक्त उपक्रम है, जिसमें 74 प्रतिशत हिस्सेदारी एनटीपीसी की और 26 प्रतिशत जेबीवीएनएल की है। इसका नाम पतरातू विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड रखा गया है।

मुखिया विजय मुंडा दावा करते हैं – बासल (Bihar Alloy Steels Limited) के लिए हमारी पंचायत की 600 एकड़ जमीन ली गयी थी, सीसीएल ने कोयला खदान के लिए 125 एकड़ जमीन ली गयी, डीवीसी ने पांच एकड़ जमीन ली और पीटीपीएस के लिए 700 एकड़ जमीन ली गयी, जहां अब एनटीपीसी का पॉवर प्लांट बन रहा है। दरअसल, एनटीपीसी का यह नया प्लांट उसी जगह बन रहा है, जहां पतरातू थर्मप पॉवर स्टेशन हुआ करता था।

इतनी औद्योगिक व खनन परियोजना होने के बावजूद गांव की गरीबी खत्म नहीं हुई है और लोगों का जीवन स्तर बहुत ऊपर नहीं हो सका। गांव में कहीं-कहीं कंपनियों की ओर से सीएसआर के तहत किये गए काम के बोर्ड या दीवार पर हाथ की लिखावट दिख जाती है।
बंद पड़ी बलकुदरा खुली खदान।
बलकुदरा ग्राम पंचायत के नया टोला के करीब 40 साल की उम्र के मनोज कुमार मुंडा पहले बलकुदरा कोयला खदान में काम करते थे, लेकिन फिलहाल करीब दो साल से वे बेरोजगार हैं और उन्हें खुद के लिए रोजगार की कोई संभावना भी नजर नहीं आ रही है। सीसीएल की बलकुदरा माइंस सीटीओ नहीं मिल पाने की वजह से बंद है। खदान के चालू रहने की स्थिति में वे वहां माइनिंग कर रही एक अन्य निजी कंपनी के कर्मचारी के रूप में ब्लास्टिंग का काम कर रहे थे और उन्हें 507 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलने के साथ सीएमपीएफ (कोल माइंस प्रोविडेंट फंड) का लाभ मिला हुआ था। लेकिन, अब उनकी जिंदगी में आर्थिक अनिश्चितता है।

मनोज कुमार मुंडा की पत्नी 37 वर्षीया राममुन्नी देवी आंगनबाड़ी सेविका हैं और मैट्रिक तक पढी हैं। वे कहती हैं कि कोयला खदान बंद होने से हमारे जीवन पर असर पड़ा है, लोग बेरोजगार बैठे हुए हैं। हालांकि वे यह भी कहती हैं कि लोग एनटीपीसी व बलकुदरा में स्थित जिंदल के स्टील प्लांट में नौकरी करने जाते हैं। मनोज और राममुन्नी के परिवार की जमीन कोयला खदान के लिए दशकों पहले ली गयी थी, तब उनके परिवार के लोगों को खदान में उसके एवज में नौकरी मिली थी और अब पीढियां बदलने के साथ वे दिहाड़ी श्रमिक में तब्दील हो गए हैं और उस पर भी रोजगार की अनिश्चितता कायम है।

खदान बंद होने का स्तर अस्थायी श्रमिकों पर, पक्की नौकरी वालों पर नहीं
मनोज कुमार मुंडा के इस हालात से उलट बंद पड़ी बलकुदरा कोयला खदान के पास वहां स्थायी नौकरी प्राप्त लोगों का छोटा झुंड नजर आता है। वे सीसीएल के स्थायी कर्मचारी है और हाजिरी बाबू यानी अटेंडेंस क्लर्क डीपी दांगी के पास हर दिन हाजिरी बनवाने आते हैं, जिससे उनकी मासिक तनख्वाह पक्की हो जाती है, भले खनन का काम हो या नहीं। उन कर्मचारियों ने इस संवाददाता के वहां वहां आने की वजह पूछने के बाद बातचीत में बताया कि यहां यह खदान बंद है, इसलिए यहां के कई कर्मचारियों व श्रमिकों को दूसरी खदान में शिफ्ट कर दिया गया है, लेकिन हमारी ड्यूटी अभी यहीं है और इसलिए हमें आना होता है। वर्तमान में यहां सीसीएल के 46 स्थायी कर्मचारी हैं और इसके अलावा आउटसोर्सिंग वाले कर्मचारी अलग हैं। खदान में खनन कार्य भले बंद हो लेकिन पानी निकालते रहना होता है, ताकि उसमें उसका जमाव नहीं हो जाए, जैसा कि परित्यक्त खदानों में दिखता है। एक कर्मचारी ने बताया कि यहां से निकाला गया पानी नलकारी नदी में बहाया जाता है। बलकुदरा कोयला खदान सितंबर 2020 से बंद है और यह छह लाख मीट्रिक टन उत्पादन क्षमता की है।

यहां के माइनिंग मैनेजर अविनाश चंद्रा ने कहा, “यहां इ ग्रेड का कोयला है और सितंबर 2020 से सीटीओ (consent to operate) नहीं मिलने की वजह से बंद है”। उन्होंने कहा कि केंद्र से इनवायरमेंट क्लियरेंस मिलता है, लेकिन सीटीओ राज्य से मिलता है। उनके अनुसार, आसपास 70 से 80 साल पुरानी अन्य खदानें बंद हैं। प्रभावित ग्रामीणों के रोजगार से जुड़े सवालों पर एक सरकारी कर्मचारी होने की वजह से सीसीएल के कार्याें का जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि रोजगार के लिए सीसीएल सीएसआर के तहत ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाता है।

मुखिया विजय मुंडा कहते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार, उनकी पंचायत की आबादी 3500 के करीब है, लेकिन हमारा अनुमान इससे कहीं अधिक आबादी का है और हमारे सर्वे में 703 घर हमने चिह्नित किया है। वास्तव में 2011 की जनगणना में यहां की आबादी 3, 915 दर्ज की गयी थी। यहां 70 प्रतिशत आदिवासी आबादी है, इसके अलावा सूंडी, साव व यादव जाति के लोग हैं। बलकुदरा एक ही गांव है, जो कई टोलों में बंटा है, जिसे बड़का टोला, पुराना टोला, नया टोला, पहुडर टोला, मदनाटांड़, महली टोला, पाहन टोला और सियाड़ी टोला के नाम से जानते हैं, जो एक-दूसरे से कुछ दूरी पर बसे हैं। विजय मुंडा कहते हैं कि उनकी पंचायत के करीब 55-60 लोग एनटीपीसी के निर्माणाधीन पॉवर प्लांट में काम करने जाते हैं, जिंदल के प्लांट में भी करीब इतनी ही संख्या है, जबकि बंद पड़ी कोयला खदान से वर्तमान में रोजगार नहीं मिला रहा है। उनके अनुसार, लोग दूसरे छोटे-मोटे रोजगार के सहारे हैं और गांव के दो दर्जन से अधिक लड़के महानगरों या औद्योगिक राज्यों में कमाने गए हुए हैं।
(सभी तसवीरें राहुल सिंह की।)
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