
गिरिडीह ओपन कास्ट माइन में कोयला नहीं चुनने को लेकर लगा सख्त चेतावनी वाला बोर्ड। फोटो : राहुल सिंह।
राहुल सिंह
वह व्यक्ति हमारी उपस्थिति को लेकर बुरी तरह आतंकित और असहज था। उसे विश्वास में लेने की हमारी कोशिशें भी विफल हो जा रही थीं और जिरह में वह सपाट-सा जवाब देता है – “इससे हमको क्या”? सात-आठ मिनट की जिरह के बाद वह जाते-जाते कहता है – “कोयला नहीं लीजिएगा”! उसने हमारे उस जगह पहुंचने के साथ भी कोयले की पेशकश की थी और जाते-जाते भी।
औसत कद-काठी के उस व्यक्ति ने पूछने पर भी हमें अपना नाम नहीं बताया था और उसके हाथों, कपड़ों व शरीर पर कोयले की धूल लगी हुई थी और वह जिस जगह खड़े होकर हमसे बात कर रहा था उसके ठीक पीछे एक टीलेनुमा आकृति की आड़ में कई महिला-पुरुष कोयले को बोरियों-टोकरियों में जमा कर रहे थे। वह उनका नेतानुमा शख्स था और उसकी असहजता देख हमने उसकी व उसके साथियों की तसवीर खींचने की न तो कोशिश की और यह भी संभव था कि ऐसा करना तनावपूर्ण भी हो जाता। झारखंड के गिरिडीह शहर से सटे बंद पड़े कबरीबाद कोलयरी में दिसंबर उत्तरार्द्ध के एक सर्द दिन में हमारी उससे मुलाकात हुई।

कोयला उद्योग के जानकारों के अनुसार, यह कोयला खदान झारखंड की सबसे पुरानी खदानों में से एक है और सीटीओ (Consent to Operate) नहीं मिल पाने की वजह से बीते साढे तीन साल से बंद पड़ी है, जबकि इस पर आश्रित हार्ड कोक प्लांट दो दशकों से बंद पड़ा है और वह जीर्ण हो चुका है, जिसके अवशेष में भी लोग अपने आर्थिक अस्तित्व की तलाश कर रहे हैं।

कबरीबाद खदान भले बंद पड़ी हो लेकिन उसके आसपास कुआंनुमा आकृति बनाकर कोयले का उत्खनन कर गरीब लोगों द्वारा आजीविका कमाने की कोशिशें जारी हैं और यह उनकी जिंदगी को खतरे में तो डालती ही है, साथ ही हर स्तर पर उन गरीबों का भयादोहन भी होता है। हमारे लिए अनाम रहे उस युवक ने हमें भी एक भयादोहन करने वाला शख्स माना लिया था, इसलिए जब हमने उससे कहा कि आपकी परेशानी हम लिखना चाहते हैं तो उसका टका-सा जवाब था – “इससे मेरा क्या”?
कोयले की खत्म होती कहानी को स्वीकार करना मुश्किल
कोयला उद्योग से जुड़े लोगों के लिए इसके सीमित भविष्य को स्वीकार करना अब भी मुश्किल है, भले ही प्रधानमंत्री मोदी ने 2070 तक भारत की ओर से विश्व बिरादरी के समक्ष अपनी एक समय सीमा तय कर दी हो। गिरिडीह के बनियाडीह कोयला क्षेत्र में रहने वाले कोयला यूनियन के नेता बुलू सिंह (76 वर्षीय) ने जीवन के पांच दशक से अधिक समय कोयला उद्योग में गुजारे हैं और उनके पास इससे जुड़ी कई कहानियां और अनुभव हैं। इंटक के प्रदेश उपाध्यक्ष बुलू सिंह कहते हैं, “गिरिडीह में पहले आठ अंडरग्राउंड माइंस थे, जो 65 से बंद होना शुरू हुआ और हाल तक दो चल रहे थे, जिसमें एक साढे तीन साल से बंद है। सीसीएल का हार्ड कोक प्लांट 20 साल से बंद पड़ा है, यहां सब सल्फ्यूरिक एसिड, बेंजोल, कोल तार सब बनता था, अब सब बंद है, यहां 300 वर्कर काम करते थे”।

बुलू सिंह भूमिगत खदानों में कोयला खनन की चुनौतियों की चर्चा करते हुए बताते हैं कि एक दौर था जब मुनिया चिड़ैया को लेकर कामगार खदानों के अंदर जाते थे और अगर वह मर जाती थी तो समझ लेते थे कि यहां ऑक्सीजन की कमी है आगे बढना खतरनाक व जानलेवा हो सकता है। ऐसे में श्रमिक रुक जाते। उनके अनुसार, मुनिया चिड़ैया बहुत नाजुक हुआ करती है जो ऑक्सीजन के स्तर में हल्की गिरावट को भी बर्दाश्त नहीं कर सकती है। हालांकि यह एक अमानवीय कृत्य होता था।
बुलू सिंह कहते हैं कि 25 साल से यहां प्रोसपेक्टिव माइंस (संभावित खदानें) नहीं हैं और कोयला पर निर्भर इस क्षेत्र के जो चार-पांच हजार वर्कर थे, उनकी आर्थिक दशा खराब है।
बनियाडीह कोयला खनन क्षेत्र में पड़ने वाली महेशलुंडी पंचायत के मुखिया हरगौरी साव कहते हैं, “गिरिडीह में अब कुछ बचा नहीं, अबरख खत्म हुआ, कोयला खत्म हुआ और जो रोलिंग मिलें थीं, उनमें 50 प्रतिशत बीते कुछ सालों में बंद हो गयीं, जबकि कई बंदी के कगार पर हैं। 10 हजार मजदूर पिछले तीन सालों से बेरोजगार हैं और इलाके से पलायन हो रहा है”।

दरअसल गिरिडीह अबरख व कोयला उद्योग के लिए जाना जाता रहा है, उसके बाद करीब चार दशक पूर्व यहां तेजी से रोलिंग उद्योग पनपा और कई रोलिंग मिल खुल गयी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2017 के एक डेटा के अनुसार, देश की 287 में आयरन एवं स्टील इकाइयों में 37 गिरिडीह में हैं। हालांकि गिरिडीह में स्टील व स्पंज आयरन उद्योग के पिछड़ने की विभिन्न वजहों में एक वजह कोयला के संकट को भी माना जाता है।
गिरिडीह ओपन कास्ट कोलयरी पर बंदी का संकट
गिरिडीह में अभी एकमात्र ओपन कास्ट कोलयरी संचालित हो रही है और 31 दिसंबर 2021 को उसका सीटीओ समाप्त हो रहा है। सीटीओ मिलने को लेकर आशंकाएं कायम हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक जनवरी 2022 से कम से कम तात्कालिक तौर पर यहां से कोयला खनन बंद हो जाएगी। एक लाख मीट्रिक टन उत्पादन वाली इस कोयला खदान में 260 स्थायी कर्मचारी हैं और इस साल एक जनवरी से 19 जनवरी तक भी यहां से उत्पादन सीटीओ नहीं मिलने के कारण ठप रहा था। बाद में सीटीओ मिलने पर उत्पादन शुरू हुआ और स्थानीय स्तर पर उसका जश्न मनाया गया था जो इस पर स्थानीय समुदाय की निर्भरता को इंगित करता है।

गिरिडीह ओपन कास्ट कोलयरी के मैनेजर जीएन बेले ने बताया कि सीटीओ की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि आज से भी प्रक्रिया शुरू होगी तो उसमें आठ महीने का वक्त लग सकता है और यह मात्र एक साल के लिए ही मिलता है। यानी उत्पादन जारी करने के लिए इसे साल दर साल हासिल करना होता है। केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पर्यावरणीय स्वीकृति मिलने के बाद राज्य सरकार की इकाई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा सीटीओ दिए जाने की प्रक्रिया पूरी की जाती है।
केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से पर्यावरणीय स्वीकृति से सीटीओ हासिल करने तक इनवायरमेंटल इंजेक्ट स्टेटमेंट, इनवायरमेंटल मैनेजमेंट प्लान और वीडियो रिकार्डिंग सहित जन सुनवाई सहित कई प्रक्रियाएं पूरी करनी होती हैं, जिसके लिए एक न्यूनतम तय समय अंतराल भी होता है। हालांकि सरकार इसे तात्कालिक तौर पर जारी कर सकती है और इसकी भी समय अवधि एक साल ही होती है।

गिरिडीह के सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी और विधायक सुदिव्य कुमार सोनू केंद्र से लेकर राज्य तक इस प्रयास में हैं कि सीटीओ हासिल हो जाए, क्योंकि यह जनभावना और आजीविका से जुड़ा मुद्दा है।
अध्ययन रिपोर्ट और गिरिडीह के हालात
कोल ट्रांजिशन पर हाल में आयी नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की रिपोर्ट में कोयला आधारित परिसंपत्ति वाले 266 जिलों को तीन श्रेणी में बांटा गया है – 1. अत्यधिक संवेदनशील 2. मध्यम संवेदनशील 3. अल्प संवेदनशील। गिरिडीह को इस ट्रांजिशन के दौर में तीसरी श्रेणी यानी अल्प संवेदनशील जिलों की सूची में रखा गया है। इस रिपोर्ट के एनेक्सर 2 में उपलब्ध डाटा के अनुसार, गिरिडीह देश के उस श्रेणी के जिले में है, जहां एक से 10 लाख मीट्रिक टन के बीच स्टील का उत्पादन होता है, एक लाख टन से अधिक पर एक मीट्रिक टन से कम स्पंज आयरन का उत्पादन होता है और एक मीट्रिक टन से कम कोयले का उत्पादन होता है। यहां कोई पॉवर प्लांट नहीं है। एनएफआइ के अध्ययन के अनुसार, गिरिडीह देश के वैसे 25 जिलों में हैं, जहां कोयला आधारित चार में से तीन परिसंपत्तियां हैं: कोयला उद्योग, स्टील उद्योग और स्पंज आयरन। संभवतः यह इसे कम संवेदनशील जिले के श्रेणी में डाले जाने का एक आधार रहा है। इस अध्ययन में इन तीन के साथ पॉवर प्लांट को भी अध्ययन का आधार बनाया गया है।
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